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________________ ७३२ तत्त्वाथवार्तिक-हिन्दी-सार [१६-१७ क्रियाओंको सावधानीपूर्वक करनेवाले साधुके प्रमत्तयोगकी सम्भावना ही नहीं है अतः चोरीका प्रसंग नहीं आता । तात्पर्य यह कि प्रमत्त व्यक्तिको परद्रव्यका आदान हो या न हो, पर प्राणिपीड़ाका कारण उपस्थित होनेके कारण पापास्रव होगा ही। अब्रह्मका लक्षण मैथुनमब्रह्म ॥१६॥ मैथुनकर्मको अब्रह्म कहते हैं। ६१-९. चारित्रमोहके उदय से स्त्री और पुरुषका परस्पर शरीरसम्मिलन होनेपर सुखप्राप्तिकी इच्छासे होनेवाला रागपरिणाम मैथुन है। यद्यपि मैथुन शब्दसे इतना अर्थ नहीं निकलता फिर भी प्रसिद्धिवश इष्ट अर्थका अध्यवसाय कर लिया जाता है । मैथुन शब्द लोक और शास्त्र दोनों में स्त्री-पुरुषके संयोगसे होनेवाले रतिकर्ममें प्रसिद्ध है। व्याकरणमें भी 'अश्ववृषभयोमैथुनेच्छायाम्' सूत्रमें मैथुनका यही अर्थ लिया गया है। जिस प्रकार स्त्री और पुरुषका रतिके समय शरीरसंयोग होनेपर स्पर्शसुख होता है उसी तरह एक व्यक्तिको भी हाथ आदिके संयोगसे स्पर्श सुखका भान होता है, अतः हस्तमैथुन भी मैथुन ही कहा जाता है । यह औपचारिक नहीं है अन्यथा इससे कर्मबन्ध नहीं हो सकेगा। यहाँ एक ही व्यक्ति चारित्रमोहोदयसे प्रकट हुए कामरूपी पिशाचके संपर्कसे दो होगया है और दोके कर्मको मैथुन कहने में कोई बाधा नहीं है। अतः 'मिथुनस्य भावः' इस पक्षमें जो दो स्त्री-पुरुषरूप द्रव्योंकी सत्तामात्रको मैथुनत्वका प्रसंग दिया जाता है,वह उचित नहीं है। क्योंकि आभ्यन्तर चारित्रमोहोदयरूपी परिणामके अभावमें बाझ कारण निरर्थक हैं। जैसे बठर चना आदिमें आभ्यन्तर पाकशक्ति न होनेसे बाप जल आदिका संयोग निष्फल है उसी तरह आभ्यन्तर चारित्रमोहोदयके रैण पोस्नरूप रतिपरिणाम न होनेसे बाह्यमें रतिपरिणामरहित दो द्रव्योंके रहने पर भी मैथुनका व्यवहार नहीं होता। 'मिथुनस्य कर्म' इस पक्षमें दो पुरुषोंके द्वारा की जानेवाली बोझाढोनारूपक्रिया पाकक्रिया और नमस्कारादि क्रियाको भी मैथुनत्वका प्रसंग देना उचित नहीं है, क्योंकि कभी कभी दो पुरुषों में भी चारित्रमोहोदयसे मैथुनकर्म देखा जाता है। कहा भी है "पुरुष पुरुषके साथ ही जो रतिकर्म करते हैं वह तीब्र रागकी ही चेष्टा है।" इसी तरह 'स्त्री और पुरुषके कर्म' पक्षमें पाकादि क्रिया और वन्दनादि क्रियामें मैथुनत्वका प्रसंग उचित नहीं है, क्योंकि स्त्री और पुरुषके संयोगसे ही होनेवाला कर्म वहाँ विवक्षित है, पाकादि क्रिया तो अन्यसे भी हो जाती है। फिर 'प्रमत्तयोग' की अनुवृत्ति यहाँ भी आती ही है। अतः चारित्रमोहके उदयसे प्रमत्त मिथुनके कर्मको ही मैथुन कह सकते हैं। नमस्कारादि क्रियामें प्रमादका योग तथा चारित्रमोहका उदय नहीं है, अतः वह मैथुन नहीं कही जा सकती। १०. जिसके परिपालनसे अहिंसादि गुणोंकी वृद्धि हो वह ब्रह्म है । अब्रह्मचारीके हिंसादि दोष पुष्ट होते हैं। मैथुनाभिलाषी व्यक्ति स्थावर और त्रसजीवोंका घात करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, सचेतन और अचेतन परिग्रहका संग्रह भी करता है। परिग्रहका लक्षण मूर्छा परिग्रहः ॥१७॥ ३१-४. गाय भैंस मणि मुक्ता आदि चेतन अचेतन बाह्य परिग्रहोंके और राग द्वेष आदि आभ्यन्तर उपाधियों के संरक्षण अर्जन संस्कारादि व्यापारको मूर्छा कहते हैं । वात पित्त और कफ आदिके विकारसे होनेवाली मूर्छा-बेहोशी यहाँ विवक्षित नहीं है। यद्यपि मूछि धातु मोहसामान्यार्थक है फिर भी यहाँ बाह्य-आभ्यन्तर उपाधिके संरक्षण अर्थमें ही उसका प्रयोग है। आभ्यन्तर ममत्वपरिणाम रूप मूर्छाको परिग्रह कहनेपर बाह्य पदार्थों में अपरिग्रहत्वका
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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