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________________ १४-१५ ] सातवाँ अध्याय ७३१ कारण ही नहीं हो सकता । यदि असतूकी उत्पत्तिका हेतु माना जाता है तो सत्के विनाशका भी कारण मानना चाहिए । तात्पर्य यह कि विनाशका निर्हेतुक मानना खंडित हो जाता है । असत्यका लक्षण - असदभिधानमनृतम् ॥१४॥ असत्य कथन अमृत है । ११- ४. 'सत्' शब्द प्रशंसावाची है, अतः 'न सत् असत्' का अप्रशस्त अर्थ होता है, शून्य अर्थ नहीं । अभिधान-कथन । अप्रशस्त अर्थका कहना । ऋत - सत्य और अनृत असत्य है। विद्यमान पदार्थों के अस्तित्वमें कोई विघ्न उत्पन्न न करनेके कारण 'सत्सु साधु सत्यम्' यह व्युत्पत्ति भी सत्यकी हो सकती है। १५. यदि 'मिथ्या अनृतम्' ऐसा लघुसूत्र बनाते तो पूरे अर्थका बोध नहीं होता, क्योंकि मिथ्या शब्द विपरीतार्थक है। अतः विद्यमानका लोप तथा अविद्यमानके उद्भावन करने बाले 'आत्मा नहीं है, परलोक नहीं है, श्यामतंडुल बराबर आत्मा है, अंगूठेकी पौर बराबर आत्मा है, आत्मा सर्वगत है, निष्क्रिय है' इत्यादि वचन ही मिथ्या होनेसे असत्य कहे जायगे, किन्तु जो विद्यमान अर्थको भी कहकर प्राणिपीड़ा करनेवाले अप्रशस्त वचन हैं वे असत्यकोटिमें नहीं आँयगे । 'असत्' कहने से जितने अप्रशस्त अर्थवाची हैं, वे सभी अनृत कहे जायगे । इससे जो विपरीतार्थवचन प्राणिपीड़ाकारी हैं वे भी अनृत ही हैं। स्तेयका लक्षण - अदत्तादानं स्तेयम् ।।१५ ॥ बिना दिये हुए पदार्थका ग्रहण करना स्तेय है । 4 ९१- ६. प्रश्न - यदि अदत्तके आदानको चोरी कहते हैं तो आठ प्रकारके कर्म और नोकर्म तो बिना दिये हुए ही ग्रहण किये जाते हैं अतः उनका ग्रहण भी चोरी ही कहलायगा ? उत्तर- जिनमें देनलेनका व्यवहार है उन सोना चाँदी आदि वस्तुओंके अदत्तादानको ही चोरी कहते हैं, कर्म- नोकर्म के ग्रहणको नहीं । यदि कर्मादान भी चोरी समझा जाय तो 'अदत्ता दान' विशेषण निरर्थक हो जाता है। जिसमें 'दत्त' का प्रसंग है उसीका 'अदत्त' से निषेध किया जा सकता है । जैसे वस्त्र पात्र आदि हाथ आदिके द्वारा ग्रहण किये जाते हैं तथा दूसरोंको दिये जाते हैं, उस तरह कर्म नहीं । कर्म अत्यन्त सूक्ष्म हैं, उनका हाथ आदिके द्वारा देना-लेना नहीं हो सकता । स्व-परशरीर आहार तथा शब्दादि विषयों में राग-द्वेष रूप तीव्र विकल्प होनेसे कर्मबन्ध होता है । अतः स्वपरिणामोंके अधीन होनेसे इनका लेन-देन नहीं होता । जब गुप्ति समितिरूप संवर परिणाम होते हैं तब आसवका निरोध हो जाता है-कर्मोंका आना रुक जाता है, अतः नित्य कर्मबन्धका प्रसंग नहीं है। अतः जहाँ लौकिक लेन-देन व्यवहार है। वहीं अदत्तादानसे चोरीका प्रसंग होता है । १७- ९. प्रश्न – इन्द्रियोंके द्वारा शब्द आदि विषयोंको ग्रहण करनेसे तथा नगरके दरवाजे आदिको बिना दिये हुए प्राप्त करनेसे साधुको चोरीका दोष लगना चाहिये। उत्तरयत्नवान् अप्रमत्त और ज्ञानी साधुको शास्त्रदृष्टिसे आचरण करनेपर शब्दादि सुननेमें चोरीका दोष नहीं है; क्योंकि ये सब वस्तुएँ तो सबके लिएदी ही गई हैं, अदत्त नहीं हैं। इसीलिए साधु उन दरवाजों में प्रवेश नहीं करता जो सार्वजनिक नहीं हैं या बन्द हैं । 'बन्दना सामायिक आदि क्रियाओंके द्वारा पुण्यका संचय साधु बिना दिया हुआ ही करता है अतः उसको प्रशस्त चोर कहना चाहिए' यह आशंका भी निर्मूल है; क्योंकि यह पहिले कह दिया है कि जहाँ देन लेनका व्यवहार होता है वहीं चोरी है। फिर, 'प्रमत्त योग' का सम्बन्ध यहाँ होता है । अतः वन्दनादि ३९
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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