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________________ पाँचवाँ अध्याय ६९५ रस जातिको न छोड़कर उत्पाद विनाशको प्राप्त होकर भी दो तीन चार संख्यात असंख्यात अनन्त गुण तिक्तरस रूपसे ही परिणमन करेगा कटुक आदि रसोंसे नहीं। इसी तरह कटुक आदिमें भी समझना चाहिए । एक सुगन्ध अपनी जातिको न छोड़कर दो आदि अनन्तगुण सुगन्ध पर्यायोंसे ही परिणत होगा दुर्गन्ध रूपसे नहीं । इसी तरह दुर्गन्ध भी । शुक्ल वर्ण अपनी जातिको न छोड़कर पूर्व उत्तरके नाश और उत्पादका अनुभव करता हुआ दो आदि अनन्तगुण शुक्ल वर्गों से ही परिणमन करता है, नीलादि रूपसे नहीं । इसी तरह नीलादिमें भी समझना चाहिए। प्रश्न-जब कठिन स्पर्श मृदु रूपमें, गुरु लघु रूपमें, स्निग्ध सूक्ष्ममें और शीत उष्णमें बदलता है, इसी तरह तिक्त कटुक आदि रूपसे, सुगन्ध दुर्गन्ध रूपसे, शुक्ल कृष्णादि रूपमें तथा और भी परस्पर संयोगसे गुणान्तर रूपमें परिणमन करते हैं तब यह एकजातीय परिणमनका नियम कैसे रहेगा ? उत्तर-ऐसे स्थानों में कठिन स्पर्श अपनी स्पर्श जातिको न छोड़कर ही मृदु स्पर्शसे विनाश उत्पादका अनुभव करता हुआ परिणमन करता है अन्य रूपमें नहीं । इसी तरह अन्य गुणोंमें भी समझ लेना चाहिए। २६. च शब्दसे नोदन अभिधात आदि जितने भी पुद्गल परिणाम हो सकते हैं उन सबका समुच्चय हो जाता है। पुद्गलके भेद - अणवः स्कन्धाश्च॥२५॥ पुद्गल दो प्रकारके हैं-अणु और स्कन्ध । ६१. प्रदेशमात्रभावी स्पर्श आदि गुणोंसे जो सतत परिणमन करते है और इसी रूपसे शब्दके विषय होते हैं वे अणु हैं। ये अत्यन्त सक्षम हैं इनका आदि मध्य और अन्त एक ही है। वही अणुका स्वरूप । कहा भी है-"एक ही स्वरूप जिनका आदि मध्य और अन्त है, जो इन्द्रियग्राह्य नहीं है, उस अविमागी द्रव्यको परमाण कहते हैं।' २. स्थूल होनेके कारण जो ग्रहण किये जा सकते हैं और रखे जा सकते हैं वे स्कन्ध हैं । रूढ़ शब्दों में क्रिया कहीं होती है, और कहीं न भी हो तो उपलक्षणसे मान ली जाती है। अतः ग्रहण निक्षेप आदि व्यापारके अयोग्य भी द्वयणुक आदि स्कन्धोंमें स्कन्ध संज्ञा बन जाती है। ३-४. दोनों शब्दोंमें बहुबचन अणुत्वजाति और स्कन्धत्वजातिसे संगृहीत होनेवाले अनन्त भेदोंकी सूचनाके लिए है । यद्यपि 'अणुस्कन्धाः ' ऐसा सूत्र बन सकता था। परन्तु पृथक निर्देश पूर्वोक्त दो सूत्रोंसे पृथक पृथक् सम्बन्ध बनानेके लिए है । स्पर्श रस गन्ध और वर्णवाले अणु हैं और शब्द आदि पर्यायवाले स्कन्ध हैं। ५-१२. कोई वादी परमाणुके इस लक्षणसे एकान्तका समर्थन करते हैं-"अन्त्यपरमाणु कारण ही है, सूक्ष्म है, नित्य है, उसमें एक रस एक गन्ध और एक वर्ण है, अविरोधी दो स्पर्श हैं तथा कार्यलिंगके द्वारा वह अनुमेय है"; पर यह युक्तियुक्त नहीं है। परमाणुको 'कारण ही' कहना ठीक नहीं है। क्योंकि वह स्कन्धोंके भेदपूर्वक उत्पन्न होनेसे कार्य भी है। 'कारणमेव' कहनेसे उसके कार्यत्वका निषेध हो जाता है। जब 'कारणमपि' कहा जाता तभी कार्यत्वका अनिषेध रहता । परमाणुमें स्नेह आदि गुण उत्पन्न और विनष्ट होते हैं अतः कथञ्चित् अनित्य होनेसे वह सर्वथा नित्य नहीं कहा जा सकता। ‘परमाणु अनादिकालसे अणु रहता है और वह द्वचणुकादि स्कन्धोंका कारण है, इसी अपेक्षा 'कारणमेव' कहा है' यह समाधान भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि अणु अपने अणुत्वको नहीं छोड़ता तो उससे कार्य भी उत्पन्न नहीं हो सकता । यदि अणुत्वका भेद हुआ तो वह स्वयं कार्य हो ही जायगा । जब तक उससे अणुत्वके
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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