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________________ ६९४ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [५।२४ मुखकी दिशा बदलनेका कोई कारण नहीं है। फिर ये नेत्र रश्मियाँ मनके अधिष्ठानके बिना पदार्थ के ग्रहणमें समर्थ भी नहीं हो सकतीं।। ६१८. सुयोदिके उष्ण प्रकाशको आतप कहते हैं। ६ १९. चन्द्र मणि जुगनू आदिके प्रकाशको उद्योत कहते हैं। ६२०-२१. क्रिया भी पुद्गलकी पर्याय है। इसका ग्रहण धर्म अधर्म और आकाशमें क्रियाका निषेध करनेसे हो ही जाता हैं । इस प्रकार 'काल' द्रव्यमें पुद्गलकी तरह क्रियावत्त्वका प्रसंग नहीं होता; क्योंकि 'अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला' यहाँ अस्तिकायोंके निर्देशमें 'काल' का ग्रहण ही नहीं किया है। यदि यहाँ पाठ होता तो 'आ आकाशादेकद्रव्याणि निष्कियाणि' इन सूत्रोंसे बाह्य होनेके कारण कालमें भी पुद्गलकी तरह क्रियावत्त्वका प्रसंग आता। अथवा यदि कालको सक्रिय मानना इष्ट होता तो 'द्रव्याणि जीवाः, कालश्च ऐसा पूर्वनिर्देश किया होता । ऐसी हालतमें 'जीवाश्च' यहाँ 'च' शब्द नहीं देना पड़ता और 'कालश्च' यह पृथक्सूत्र भी नहीं बनाना पड़ता। अनन्त समयोंकी सूचनाके लिए 'कालश्च' सूत्रकी सार्थकता बताना भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'आकाशस्यानन्ताः कालश्च' इस प्रकार सूत्र बनानेसे वह प्रयोजन सिद्ध हो सकता था। इस तरह लघु न्यायसे सब कार्य सिद्ध हो जानेपर भी जो आगे 'कालश्च' ऐसा पृथक् सूत्र बनाया गया है उससे ज्ञात होता है कि कालमें क्रियावत्त्व इष्ट नहीं है। यह निष्क्रियता परिस्पन्दरूप क्रियाकी अपेक्षासे है "अस्ति' आदि भावात्मक क्रियाओंकी अपेक्षासे नहीं। अतः अनादि पारिणामिक अस्ति आदि क्रियाकी दृष्टिसे काल द्रव्य क्रियावान है और देशान्तर प्राप्ति करानेमें समर्थ परिस्पन्दरूप क्रियाकी अपेक्षा काल निष्क्रिय है।। २२. क्रिया प्रयोग बन्धाभाव आदिके भेदसे दस प्रकारकी है। बाण चक्र आदिकी प्रयोग गति है । एरण्डबीज आदिकी बन्धाभाव गति है । मृदंग भेरी शंखादिके शब्द पुद्गलोंकी जो दूर तक जाते हैं छिन्नगति है । गेंद आदिकी अभिघातगति है । नौका आदिकी अवगाहनगति है । पत्थर आदिकी नीचेकी ओर गुरुत्वगति है । तुंबड़ी रुई आदिकी लघु गति है । सुरा सिरका आदिकी संचार गति है। मेघ, रथ,मूसल, आदिकी क्रमशः वायु,हाथी तथा हाथके संयोगसे होनेवाली संयोग गति है। वायु अग्नि परमाणु मुक्तजीव और ज्योतिर्देव आदिकी स्वभावगति है। अकेली वायुकी तिर्यक गति है। भस्त्रादिके कारण वायुकी अनियत गति होती है। अग्निकी स्वाभाविक ऊर्ध्वगति है। कारणवश उसकी अन्य दिशाओं में भी गति होती है। परमाणुकी अनियत गति है । मुक्त होनेवाले जीवोंकी ऊर्ध्वगति है । ज्योतिषियोंका नरलोकमें नित्य भ्रमण होता है। ६२२-२३ जैसे 'सारवान् स्तम्भः' या 'आत्मवान् पुरुषः' यहाँ अभेदमें भी मत्वर्थीय प्रयोग देखा जाता है, उसी तरह इस सूत्र में भी समझना चाहिए । मत्वर्थीयका 'दण्डी देवदत्तः'की तरह एकान्त भिन्नतामें ही प्रयोग होनेका नियम नहीं है। फिर शब्दादि भी पर्यायदृष्टिसे पुद्गल द्रव्यसे भिन्न हैं । गरम लोहे की तरह पुद्गलका ही शब्दादि रूपसे परिणमन होता है, अतः स्यात् अभिन्नत्व है। ६२४ स्पर्शादि परमाणुओंके भी होते हैं और स्कन्धोंके भी, पर शब्दादि व्यक्तरूपसे स्कन्धोंके ही होते हैं सौक्ष्म्यको छोड़कर, इस विशेषताको बतानेके लिए पृथक सूत्र बनाया है। सौक्ष्यका इस सूत्रमें निर्देश स्थौल्यका प्रतिपक्ष सूचन करनेके लिए खास तौरसे किया गया है। २५. 'स्पर्शादि गुणोंका एकजातीय परिणमन होता है। इसकी सूचना करनेके लिए पृथक् सूत्र बनाया है। जैसे कठिन स्पर्श अपनी जातिको न छोड़कर पूर्व और उत्तर स्वगत भेदोंके उत्पाद विनाशको करता हुआ दो तीन चार संख्यात असंख्यात अनन्तगुण कठिन स्पर्श पर्यायों से ही परिणत होता है मृदु, गुरु, लघु आदि स्पोंसे नहीं । इसी तरह मृदु आदि भी। तिक्तरस
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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