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________________ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [५।२२ उसी तरह रहता है और रस बढ़ते हैं तो फिर बीज क्या करता है ?" उत्तर- नमात्र अंकुर होगा' यह कहकर परिणाम तो आग्ने स्वीकार कर ही लिया है । जैसे मनुष्यायु ९ : नाम कर्मके उदयसे उत्पन्न हुआ बालक बाह्य सूर्यप्रकाश माँका दूध आदिको अपनी भीतर पाचनशक्तिसे पचाता हुआ आहार आदिके द्वारा क्रमशः बढ़ता है उसी तरह वनस्पति विशेष आयु और नाम कर्मके उदयसे वीजाश्रित जीव अंकुररूपसे उत्पन्न होकर पार्थिव और जलीय रसभागको गरम लोहेके द्वारा सोखे गये पानीकी तरह खींचता हुआ बाह्य सूर्यप्रकाश और भीतरी पाचनशक्तिके अनुसार उन्हें जीर्ण करता हुआ अपने खादके अनुसार बढ़ता है । अतः वृद्धि बीजाश्रित नहीं है किन्तु अन्य कारणोंके आधीन है। यह दोष तो एकान्तवादियोंको ही हो सकता है । जो वस्तुको सर्वथा नित्य मानते हैं, उनके यहाँ तो परिणमन ही नहीं होता, वृद्धि कहाँसे होगी ? क्षणिक पक्षमें भी प्रतीत्यसमुत्पादकी प्रक्रियामें जितना कारण होगा उतना कार्य होगा अतः वृद्धि नहीं हो सकती । क्षणिक पक्षमें अंकुर और अंकुरके कारण भौम रस उदकरस आदिका युगपत् विनाश होगा या क्रमशः ? यदि युगपत् ; तो उनके द्वारा वृद्धि क्या होगी? वृद्धिके कारण जब स्वयं नष्ट हो रहे हैं तो वे अन्य विनश्यमान पदार्थकी क्या वृद्धि करेंगे? यदि क्रमशः; तब भी नष्ट अंकुरका भौमरस उदकरस आदि क्या करेंगे? अथवा, विनष्ट रसादि अंकुरका क्या कर सकेंगे? अनेकान्तवादीके मतमें तो अंकुर या भौमरसादि सभी द्रव्यदृष्टिसे नित्य हैं और पर्याय दृष्टसे अनित्य । अतः वृद्धि हो सकती है। १६. शंका-क्षणिक पक्षमें प्रबन्धभेद मानकर वृद्धि बन सकती है। प्रबन्ध तीन प्रकार के हैं-सभागरूप, क्रमापेक्ष और अनियत । प्रदीपसे प्रदीपकी सन्तति चलना सभागप्रबन्ध है। यह प्रवाहसे प्रवाहकी तरह सादृश्य होनेसे सभाग कहलाता है। जो सन्तान प्रबन्ध क्रमसे चले वह क्रमापेक्ष है जैसे कि बाल कुमार जवान आदि दशाओंका या बीज अंकुर आदि अवस्थाओंका । मुर्गेमें अनेक रंगके प्रबन्धकी तरह मेघ और इन्द्रधनुष आदिमें अनियत प्रबन्ध है। इससे वृद्धि हो सकती है ? समाधान-यहाँ यह विचारणीय है कि प्रबन्ध दो विद्यमान पदार्थों का माना जायगा, या अविद्यमान पदार्थों का, या विद्यमान और अविद्यमानका ? दो अविद्यमानोंका तो बन्ध्यासुत और आकाशपुष्पकी तरह प्रबन्ध हो नहीं सकता । इसी तरह खर और खरविषाणकी तरह एक विद्यमान और एक अविद्यमानका भी प्रबन्ध नहीं हो सकेगा। अन्तमें विद्यमानोंका ही प्रबन्ध बनता है। परन्तु क्षणिकपक्षमें पूर्व और उत्तर स्कन्धकी एक क्षणमें सत्ता तो हो ही नहीं सकती अतः प्रबन्ध कैसा ? यदि सत्ता मानते हैं तो क्षणिकवादका लोप हो जायगा । 'तराजूके पलड़ोंमें एकका ऊपर उठना और दूसरेका नीचे झुकना जिस प्रकार एक साथ होता है उसी तरह एक साथ उत्पाद और विनाश मानकर अर्थप्रबन्ध चलेगा' यह पक्ष भी ठीक नहीं है क्योंकि यदि युगपत् उत्पाद-विनाश माना जाता है तो दायें-बायें सींगकी तरह परस्पर कार्यकारणभाव नहीं हो सकेगा। ६१७-१८. "अवस्थित द्रव्यके एक धर्मकी निवृत्ति होनेपर अन्य धर्मकी उत्पत्ति होना परिणाम है।" ध्रौव्यादि लक्षणवाले द्रव्यके क्षीरधर्मकी निवृत्तिपूर्वक दधिधर्मकी उत्पत्ति परिणाम कही जाती है । परिणामका यह लक्षण भी ठीक नहीं है, इसमें अनेक दोष आते हैं । इस वादीके यहाँ द्रव्य अवस्थित तो है नहीं, जिसका परिणाम होगा। यदि गुणसमुदायसे भिन्न कोई द्रव्य स्थिर रहता है तो गुणसमुदायमात्रको द्रव्य नहीं मानना चाहिए। बताइए जो उत्पन्न होता है जो नष्ट होता है तथा जो स्थिर रहता है ये तीनों गुणसमुदायरूप हैं, या उससे भिन्न ? यदि गुणसमुदायमात्र ही हैं। तो जब वही गुणसमुदाय पहिले रहा तथा वही पश्चात् , तो इनमें कौन किसका परिणाम होगा ? निवृत्त होनेवाला उत्पन्न होनेवाला, और स्थिर रहनेवाला तो भिन्न
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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