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________________ ५।२२] पाँचवाँ अध्याय अतः उसका भी प्रतिषेध हो जायगा। ऐसी दशामें परिणामका अस्तित्व ही सिद्ध होगा। यदि परिणामका प्रतिषेध विद्यमान होनेपर भी अप्रतिषिद्ध है; तो परिणाम भी विद्यमान रहते हुए अप्रतिषिद्ध रहना चाहिए। यदि परिणाम विद्यमान नहीं है, तो भी खरविषाणकी तरह उसका निषेध नहीं किया जा सकता। अथवा जो व्यक्ति परिणामका प्रतिषेध कर रहा है उसका 'वक्ता के रूपमें, वचनोंका 'वाचक शब्द'के रूपमें तथा अभिधेयका 'वाच्य अर्थ'के रूपमें परिणमन भी जब नहीं होगा तब प्रतिषेध कैसे होगा? तात्पर्य यह कि वक्ता वाच्य और वचनोंके अभावमें परिणामका प्रतिषेध सिद्ध नहीं हो पायगा। १३. प्रश्न-'बीजसे अंकुर भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो वह बीजका परिणाम नहीं कहा जा सकेगा। यदि अभिन्न है; तो उसे अंकुर नहीं कह सकते क्योंकि वह बीजके स्वरूपकी तरह बीजसे अभिन्न है। कहा भी है-“यदि बीज स्वयं परिणत हुआ है तो अंकुर बीजसे भिन्न नहीं हो सकता । पर ऐसा है नहीं, अर्थात् भिन्न है । यदि भिन्न है अर्थात् बीज अंकुररूप नहीं है तो उसे अंकुर नहीं कह सकते" इत्यादि दूषण आते हैं अतः परिणाम नहीं बन सकता। उत्तर-इसका उत्तर पहिले दे दिया है कि हम एकान्तपक्षको नहीं मानकर अनेकान्तपक्ष मानते हैं। अंकुरकी उत्पत्तिके पहिले वीजमें अंकुर पर्याय नहीं थी पीछे उत्पन्न हुई अतः पर्यायकी दृष्टिसे अंकुर बीजसे भिन्न है । चूँकि शालिबीजकी जातिवाला ही अंकुर उत्पन्न हुआ है अन्य जातिका नहीं अतः शालिबीज जातिवाले द्रव्यकी दृष्टिसे बीजसे अंकुर अभिन्न है। ६११. प्रश्न-बीज जब अंकुररूपसे परिणत हो जाता है तब उसमें बीज यदि व्यवस्थित है तो बीजके व्यवस्थित रहनेसे अंकुरका होना विरुद्ध ही है। यदि अव्यवस्थित है तो कहना होगा कि बीज अंकुररूपसे परिणत नहीं हुआ' इत्यादि दोष आनेसे परिणाम नहीं सकता। उत्तर इस सम्बन्धमें अनेकान्त ही स्वीकार किया गया है। जैसे मनुष्यायु और नाम कर्मके उदयसे अंग उपांग पर्यायोंको प्राप्त करता हुआ आत्मा अंगुलि उपांगकी दृष्टिसे अंगुलि आत्मा कहा जाता है। वह अंगुलि-आत्मा वीर्यान्तरायके क्षयोपशमकी अपेक्षा संकुचित और प्रसारित अवस्थाओंको प्राप्त होता है। उस समय वह अनादि पारिणामिक चैतन्य द्रव्यकी दृष्टिसे 'सत्' है और पुद्गलरूपसे परिणत अंगुलि उपांगकी दृष्टिसे भी 'सत्' है, अभिन्न है और अवस्थित है। संकोचन प्रसारणरूप पर्यायार्थिक दृष्टिसे ही वह असत भिन्न और अनवस्थित है। उसी तरह एकेन्द्रिय वनस्पति नाम कर्मके उदयवाला आत्माही बीज कहा जाता है । वह अनादि पारिणामिक चैतन्य द्रव्यकी दृष्टिसे 'सत्' है और पौद्गलिक शालिजातीय एकेन्द्रियके रूप रस स्पर्श शब्दादि पर्यायकी दृष्टि से भी 'सत्' है, इसी तरह अभिन्न भी है और अवस्थित भी। हाँ, पौगलिक शालिबीजरूप पर्यायकी दृष्टिसे ही वह असत् भिन्न और अनवस्थित है। इस तरह अनेकान्तवादमें कोई दूषण नहीं रहता। १५. प्रश्न-परिणाम माननेमें वृद्धि नहीं हो सकती। यदि बीज अंकुररूपसे परिणत होता है तो दूधके परिणाम दहीकी तरह अंकुरको बीजमात्र ही होना चाहिए, बड़ा नहीं। कहा भी है-“यदि बीज अंकुरपनेको प्राप्त होता है तो छोदे बीजसे बड़ा अंकुर कैसे हो सकेगा ?" यदि पार्थिव और जलीय रससे अंकुरकी वृद्धि कही जाती है तो कहना होगा कि वह बीजका परिणाम नहीं हुआ। कहा भी है-“यदि यह इष्ट है कि अंकुर पार्थिव और जलीय रससे बढ़ता है तो फिर उसे बीजका परिणाम नहीं कहना होगा।" पार्थिव जलीय तथा अन्य रस द्रव्योंके संचयसे वृद्धिकी कल्पना भी ठीक नहीं है, क्योंकि लाखका संयोग होनेपर भी जैसे लकड़ीमें वृद्धि नहीं होती उसी तरह संचयसे वृद्धि नहीं मानी जा सकती। कहा भी है-"जैसे लाखसे लपेटनेपर भी काठ मोटा तो हो जाता है पर बढ़ता नहीं है, लाख ही बढ़ती है, उसी तरह यदि बीज
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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