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________________ ५।१९] पाँचवाँ अध्याय .. १०. प्रश्न-आकाशका खरविषाणकी तरह अभाव है क्योंकि वह उत्पन्न नहीं हुआ है ? उत्तर-आकाशको अनुत्पन्न कहना असिद्ध है, क्योंकि द्रव्यार्थिककी गौणता और पर्यायार्थिककी मुख्यता होनेपर अगुरुलघु गुणोंकी वृद्धि और हानिके निमित्तसे स्वप्रत्यय उत्पादव्यय और अवगाहक जीवपुद्गलों के परिणमनके अनुसार परप्रत्यय उत्पाद-व्यय आकाशमें होते ही रहते हैं। जैसे कि अन्तिम समयमें असर्वज्ञताका विनाश होकर किसी मनुष्यको सर्वज्ञता उत्पन्न हुई तो जो आकाश पहिले अनुपलभ्य था वही पीछे सर्वज्ञको उपलभ्य हो गया, अतः आकाश भी अनुपलभ्यत्वेन विनष्ट होकर उपलभ्यत्वेन उत्पन्न हुआ। इस तरह उसमें परप्रत्यय भी उत्पादविनाश होते रहते हैं । 'खरविषाण' भी ज्ञान और शब्द रूपसे उत्पन्न होता है तथा अस्तित्वमें भी है, अतः दृष्टान्त साध्यसाधन उभयधर्मसे शून्य है। कोई जीव जो पहिले खर था, मरकर गौ उत्पन्न हुआ और उसके सींग निकल आये। ऐसी दशामें एक जीवकी अपेक्षा अर्थरूपसे भी 'खर-विषाण' प्रयोग हो ही जाता है। अतः आकाशका अभाव नहीं किया जा सकता। ११. आकाश आवरणाभाव मात्र नहीं है किन्तु वस्तुभूत है। जैसे कि नाम और वेदना आदि अमूर्त होनेसे अनावरण रूप होकर भी सत् हैं उसी तरह आकाश भी।। १२. शब्द पौद्गलिक है, आकाशका गुण नहीं है, अतः शव्दगुणके द्वारा गुणीभूत आकाशका अनुमान करना उचित नहीं है, किन्तु अवगाहके द्वारा ही वह अनुमित होता है। अतः यह कहना अयुक्तिक है कि-"शब्द आकाशका गुण है, वह वायुके अविघात आदि बाह्य निमित्तोंसे उत्पन्न होता है, इन्द्रियप्रत्यक्ष है, गुण है, अन्य द्रव्योंमें नहीं पाया जाता, निराधार गुण रह नहीं सकते अतः अपने आधारभूत गुणी आकाशका अनुमान कराता है।" १३. सांख्यका आकाशको प्रधानका विकार मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि नित्य निष्क्रिय अनन्त प्रधानके आत्माकी तरह विकार ही नहीं हो सकता, न उसका आविर्भाव ही हो सकता है और न तिरोभाव ही। "प्रधानको सत्त्व रज और तम इन तीन गुणोंको साम्य" अवस्था रूप माना है। उसमें उत्पादक स्वभावता है इसीके विकार महान् आदि होते हैं आकाश भी उसीका विकार है" यह कथन भी अयुक्त है, क्योंकि जिस प्रकार घड़ा प्रधानका विकार होकर अनित्य मूर्त और असर्वगत है उसी तरह आकाशको भी होना चाहिए या फिर आकाशकी तरह घटको नित्य अमूर्त और सर्वगत होना चाहिए । एक कारणसे दो परस्पर अत्यन्तविरोधी विकार नहीं हो सकते। पुद्गलोंका उपकार शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥१९॥ शरीर वचन, मन और श्वासोच्छवास पुद्गलके उपकार हैं। १-२, ९-११. शरीरके होनेपर ही वचन आदिकी प्रवृत्ति होती है अत शरीरका सर्व प्रथम ग्रहण किया है। उसके बाद वचनका ग्रहण किया है क्योंकि वचन ही पुरुपको हितमें प्रवृत्ति कराते हैं। इसके बाद मनका ग्रहण किया है क्योंकि जिनके शरीर और वचन होता है उन्हींके मन होता है । अन्तमें श्वासोच्छवासका ग्रहण किया है क्योंकि ये सभी संसारी जीवोंके पाया जाता है। ये सब पुद्गल द्रव्यके लक्षण नहीं हैं किन्तु उपकार हैं । लक्षण तो आगे बताया जायगा। ६३-८. प्रश्न-चक्षु आदि इन्द्रियाँ भी आत्माको उपकारक हैं अतः उनका भी ग्रहण करना चाहिए ? उत्तर-आगेके सूत्र में 'च' शब्द देनेवाले हैं, उससे सभो इटका समुच्चय हो जायगा। 'चक्षु आदि इन्द्रियाँ आत्म-प्रदेशरूप हैं अतः उनका यहाँ ग्रहण नहीं किया है। यह समाधान ठीक नहीं है क्योंकि अंगोपांग नामकर्मके उदयसे रची गई द्रव्येन्द्रियाँ पौगालिक हैं।
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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