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________________ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [५।१८ गति और स्थिति मानी जाती है तो जिन मुक्त जीवोंका अदृष्ट-पुण्यपाप नष्ट हो गया है उनके स्वाभाविक गति और स्थिति नहीं हो सकेंगी, पर होती अवश्य हैं। ४१-४२. अमूर्त होनेसे धर्म और अधर्म द्रव्यमें गतिहेतुत्व और स्थितिहेतुत्वका अभाव नहीं किया जा सकता, क्योंकि अमूर्त के कार्यहेतुत्व न होनेका कोई दृष्टान्त नहीं मिलता। उलटे आकाश आदि अमूर्त पदार्थ स्वकार्यकारी देखे ही जाते हैं। आकाश अमूर्त होकर सब द्रव्योंके अवगाहमें निमित्त होता है। अमूर्त प्रधान महान् अहंकार आदि विकार रूपसे परिणत होकर पुरुषके भोगमें निमित्त होता है। अमूर्त विज्ञान नाम रूपकी उत्पत्तिका कारण होता है। 'नाम रूप विज्ञाननिमित्तक हैं' यह बौद्धोंका सिद्धान्त है। अदृष्ट अमूर्त होकर भी पुरुषके उपभोगसाधनोंमें निमित्त होता ही है । इसी तरह अमूर्त धर्म और अधर्म भी गति और स्थितिमें साधारण निमित्त हो जायगे। आकाशस्यावगाहः ॥१८॥ अवगाह देना आकाशका उपकार है। १. अवगाह शब्द भावसाधन है। ६२. 'धर्म और अधर्म आकाशमें रहते हैं। यह औपचारिक प्रयोग है, यह 'हंस जलको अवगाहन करता है। इसकी तरह मुख्य प्रयोग नहीं है। मुख्य आधाराधेयभावमें आधार और आधेयमें पौर्वापर्य होता है और यह पहिले है इस प्रकारका सादित्व होता है किन्तु यहाँ समस्त लोकाकाशमें धर्म और अधर्मकी व्याप्ति है अतः 'लोकाकाशमें अवगाह है। यह प्रयोग हो जाता है । जैसे कि गमनक्रिया न होनेपर भी सर्वत्र व्याप्ति होनेके कारण आकाशको सर्वगत कह देते हैं। ३-४. प्रश्न-कुण्ड और बेर आदि पृथसिद्ध पदार्थों में ही आधाराधेय भाव देखा जाता है। पर ये धर्म अधर्म आकाश आदि तो अयतसिद्ध (पृथकसिद्ध नहीं) हैं क्योंकि इनमें अप्राप्तिपूर्वक प्राप्ति नहीं है ? उत्तर-अयुतसिद्ध पदार्थों में भी आधाराधेयभाव देखा जाता है जैसे कि 'हाथमें रेखा' यहाँपर, उसी तरह लोकाकाशमें धर्म और अधर्म हैं यह व्यवहार भी बन जायगा। अथवा, जैसे 'ईश्वरमें ऐश्वर्य है' यहाँ अयुतसिद्धमें भी आधाराधेयभाव देखा गया है उसी तरह धर्म अधर्म और आकाशमें भी समझ लेना चाहिए। ५. धर्माधर्मादिके अनादिसम्बन्ध और अयुतसिद्धत्वके विषयमें अनेकान्त है-पर्यायार्थिकनयकी गौणता और द्रव्यार्थिककी मुख्यता होनेपर व्यय और उदय नहीं होता अतः ये स्यात् अयुतसिद्ध और अनादिसम्बद्ध हैं तथा पर्यायार्थिककी मुख्यता और द्रव्यार्थिककी गौणतामें सादिसम्बद्ध और युतसिद्ध हैं क्योंकि पर्यायोंका उत्पाद और व्यय होता रहता है। ६. जीव और पुद्गल 'हंस जलका अवगाहन करता है' इसकी तरह मुख्य रूपसे अवगाह प्राप्त करते हैं क्योंकि ये क्रियावान हैं। ७-९. आकाशमें अवकाशदानकी शक्ति होनेपर भी स्थूल पदार्थ परस्परमें टकरा जाते हैं, एक दूसरेके प्रतिघाती होते हैं। इन वन पत्थर दीवाल आदि स्थूल पदार्थों में प्रतिघात होनेसे आकाशके अवकाशदानमें कोई कमी नहीं आती। सूक्ष्मपदार्थ तो एक दूसरेके भीतर भी प्रवेश कर सकते हैं । सूक्ष्म पदार्थोंके परस्पर अवकाश देनेपर भी आकाशके अवगाहदान लक्षणमें कोई कमी नहीं आती, क्योंकि भूमि आदि अश्व आदिके आधार हो भी जायँ किन्तु समस्त पदार्थोंको अवगाह देना आकाशकी ही विशेषता है। अलोकाकाशमें यद्यपि अवगाही पदार्थ नहीं है फिर भी आकाशका 'अवगाहदान' स्वभाव वहाँ भी मौजूद है ही जैसे कि जलमें अव. गाहन करनेवाले हंस आदिके अभावमें भी 'अवगाह देना' स्वभाव बना रहता है।
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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