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________________ ६५८ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [ २ सामान्यमें यह बात नहीं है क्योंकि महापरिमाण गुण द्रव्यमें ही रहता है, सामान्यमें नहीं । एकत्वसंख्याकी तरह इसमें उपचारसे महत्त्व स्वीकार करके निर्वाह करना उचित नहीं है क्योंकि उपचरित पदार्थ मुख्य कार्य नहीं कर सकता। आकाश तो अनन्तप्रदेशवाला है अतः प्रदेशभेदसे युगपत् अनेक जगह वृत्ति बन जाती है, पर द्रव्यत्वमें यह बात नहीं है। अनेक कपड़ोंमें रंगा गया नील द्रव्य एक नहीं है वह तो न केवल प्रत्येक कपड़ेमें जुदा जुदा है किन्तु एक कपड़ेके हिस्सोंमें भी जुदा जुदा है। जिस प्रकार अग्निकी उष्णता सिद्ध करनेके लिए अन्य दृष्टान्त नहीं है, फिर भी स्वभावसे अग्नि उष्ण है उसी तरह एककी अनेक जगह वृत्ति मानने में दृष्टान्त न मिलनेपर भी वह स्वभावतः सिद्ध हो जायगी' यह तर्क असङ्गत है; क्योंकि 'दृष्टान्तके अभावमें भी साध्य सिद्ध होता है। इस प्रतिज्ञाकी सिद्धिमें आपने स्वयं दृष्टान्त उपस्थित किया है अतः स्ववचन विरोध है। यदि युक्तियोंके अभावमें भी द्रव्यत्वको अनेकसम्बन्धी मानते हो तो द्रव्यको ही स्वतः द्रव्य क्यों नहीं मान लेते? समवायका खंडन तो पहिले किया जा चुका है। ६. 'गुणसन्द्राव अर्थात् जो गुणोंको प्राप्त हो या गुणोंके द्वारा प्राप्त हो वह द्रव्य है।' यह मत भी ठीक नहीं है, क्योंकि सर्वथा एकान्त पक्षमें अनेक दोप आते हैं। गुणांसे यदि द्रव्यको अभिन्न माना जाता है तो कर्ता और कर्म रूपसे भिन्न निर्देश नहीं हो सकेगा। अभेद पक्षमें या तो गुण ही रह जायेगे या फिर द्रव्य ही। यदि गुण ही रहते हैं, तो निराश्रय गुणोंका अभाव ही हो जायगा । यदि द्रव्य रहता है, तो बिना लक्षण या स्वभावके उसका कोई अस्तित्व नहीं रह सकेगा। यदि भिन्न मानते हैं तो भी दोनोंका निःस्वरूप होनेसे अभाव ही हो जायगा। गुण तो निष्क्रिय होते हैं अतः उनका द्रव्यके प्रति अभिद्रवण [गमन भी नहीं हो सकता। वैशेषिक सूत्र में लिखा ही है कि "दिशा काल और आकाश क्रियावालोंसे विलक्षण होनेके कारण निष्क्रिय हैं। कर्म और गुण भी इसी तरह निष्क्रिय द्रव्य भी गुणोंकी तरफ गमन नहीं कर सकते । अतः 'संद्रवति' यह लक्षण भी ठीक नहीं है। जैसे अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखनेवाले ग्रामको स्वतःसिद्ध देवदत्त प्राप्त होता है, उस तरह यहाँ गुण स्वतन्त्र सत्तावाले नहीं हैं जिससे द्रव्य उन्हें प्राप्त हो । 'पार्थिव परमाणुओंमें अग्निसंयोगसे श्याम रूप आदिका विनाश होकर लाल रूप उत्पन्न होता है, अतः यहाँ गुणोंको द्रव्य प्राप्त होता ही है' यह तर्क भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि द्रव्य टहरता है और रूपादि नष्ट होते और उत्पन्न होते हैं तो रूपादि गुण और द्रव्योंमें भेद हो जायगा । यदि इनका समवाय मानकर इन्हें अयुतसिद्ध स्वीकर किया जाता है तो द्रव्यकी तरह रूपादिगुण भी नित्य हो जायग। अयुतसिद्धि तो तभी हो सकती है जब द्रव्यके कालमें रूपादि सदा:विद्यमान रहें। इस तरह या तो रूपादिकी तरह द्रव्य अनित्य हो जायगा या फिर द्रव्यकी तरह ख्यादि नित्य हो जायेंगे। जिस प्रकार जो पंडित है वह मूर्ख नहीं तथा जो मूर्ख है यह पंडित नहीं क्योंकि दोनोंमें परस्पर विरोध है, उसी तरह यदि समवायके कारण द्रव्यसे रूपादि अयुतसिद्ध होंगे तो वे द्रव्यकी तरह न तो उत्पन्न ही होंगे और न विनष्ट ही। यदि ये विनष्ट भी होंगे तथा उत्पन्न भी होंगे और द्रव्य स्थिर रहेगा तो मानना होगा कि वे अयुतसिद्ध नहीं हैं। यदि गुण और द्रव्य पृथक हैं तो गुणों के द्वारा व्यका नियत प्राप्त होना उसी तरह असंभव है जिस तरह कि घटके द्वारा पटका । 'भेदमें ही अग्नि और धूमकी तरह उपलभ्य-उपलम्भक भाव होता है अभेदमें नहीं; क्योंकि स्वात्मामें वृत्तिका विरोध है, वही अंगुलीका अग्रभाग अपने आपको नहीं छू सकता। इसी तरह 'द्रव्य और गुणमें अभेद माननेपर वृत्ति नहीं बन सकती' यह तर्क ठीक नहीं है, क्योंकि 'प्रदीप अपने स्वरूपको प्रकाशित करता है। यहाँ स्वात्मामें ही प्रकाशन क्रिया देखी गई है। वह स्वरूप-प्रकाशनमें अन्य प्रदीपकी आवश्यकता नहीं रखता। हम पूछते हैं कि इस मतके उपदेष्टा अपने स्वरूपको जानते हैं या
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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