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________________ 67/श्री दान-प्रदीप मैं तो इस शरीर के भीतर रहे हुए वैरी की तरह ज्ञान के द्वारा कैसी दुर्दशा को प्राप्त हो गया हूं? यह ज्ञान कदाचित् गुण रूप भी हो, पर वह प्रयासों का कारण होने से मैं तो इसके द्वारा जकड़ा जा चुका हूं। अगर कपूर से दाँतों का विनाश होता हो, तो ऐसे कपूर से तो दूर रहना ही बेहतर है, भले ही वह कपूर गुणयुक्त ही क्यों न हो। लेनदारों की तरह ये साधु मुझे देनदार मानकर पठनादि के द्वारा मेरी कितनी कदर्थना करते हैं। कीर्ति का जरिया होने पर भी इस ज्ञानदान से अब बस! जिससे कानों में छेद होता हो, ऐसे स्वर्णादि आभूषणों से क्या कार्य सिद्ध हो सकता है? तोता-मैना की तरह ये निरपराध प्राणी ज्ञान के वशीभूत होकर ही दिन-रात बन्धन को प्राप्त होते रहते हैं।" इस प्रकार के हीन विचारों से युक्त मूर्ख शिरोमणि व मन्दबुद्धि से युक्त होकर वह विजयाचार्य ज्ञान पर अपने द्वेष को पुष्ट करके साधुओं को पढ़ाने में प्रमाद करने लगा। यह देखकर स्थविर साधुओं ने उसे वाचनादि देने के लिए प्रेरणा की। तब उसने कहा-“एकमात्र कण्ठ का शोषण रूप ही होने से इस ज्ञानदान व पठन-पाठन से अब बस! एकमात्र क्रिया में ही पुरुषार्थ करना चाहिए। क्रिया ही फल प्राप्त करने का साधन है, श्रुतज्ञान नहीं। श्रुतज्ञान न होने पर भी माषतुषादि मुनि सिद्ध हुए हैं। चौदह पूर्व का अध्ययन करने के बाद भी क्रिया के बिना अनंत जनों ने भवभ्रमण करके दुःखों को प्राप्त किया है-ऐसा शास्त्रों में सुना जाता है। लोक में भी किसी भी स्थान पर मात्र ज्ञान के द्वारा फल की सिद्धि नहीं देखी जाती है। समीप में रखी हुई स्वादिष्ट भोज्य-सामग्री को देखने मात्र से कुछ भी तृप्ति हासिल नहीं होती। नाटक में कुशलता को प्राप्त होशियार नटी भी उस नाटक का प्रयोग किये बिना कभी भी लोगों के पास से इनाम प्राप्त नहीं कर सकती। अतः अगर मोक्ष की अभिलाषा है, तो सम्यग् प्रकार से क्रिया का सेवन करो। क्या आपलोगों ने नहीं सुना? जो क्रियावान् होता है, वही पण्डित है।" इस प्रकार उत्सूत्र का आलाप करने पर स्थविरों ने उसकी अवगणना की, तिरस्कार किया। विवेकशील पुरुष उन्मार्ग में प्रवर्तित अपने गुरु का भी आदर नहीं करते। मर्मस्थान का छेदन करनेवाले और आत्मा को अन्धा करनेवाले ऐसे कुकर्म को धिक्कार है! क्योंकि यह कर्म जिनागम के ज्ञाता को भी उन्मार्ग पर ले जाता है। उसके बाद विजय सूरि उस अतिचार की आलोचना किये बिना ही मरण प्राप्त करके संयम के प्रभाव से सौधर्म देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न हुए। वहां असंख्यात वर्षों तक सुखों का उपभोग किया। आयुष्य पूर्ण होने पर पके हुए पत्ते की तरह वे देवलोक से च्युत होकर पद्मखण्ड नामक नगर में धन नामक श्रेष्ठी की शिवा नामक प्रिया की कुक्षि से धनशर्मा नामक पूर्ण सुन्दरता से युक्त पुत्र के रूप में पैदा हुए। पहले कोई भी सन्तान न
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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