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________________ 60/श्री दान-प्रदीप युद्ध करेगा?" इस प्रकार सेवाल राजा को उत्साहित करके उन्हें आगे करके स्वयं कुमार के साथ कृत्रिम क्रोध के साथ युद्ध करने लगे। उसके बाद संकेत किये हुए वे और कुमार के सैनिक सेवाल को बीच में करके उसी पर प्रहार करने लगे। निरन्तर प्रहार के द्वारा उसे शस्त्र-समूह से ढक दिया। उसके छत्र का छेदन कर दिया। यह देखकर उसके सैनिक त्रस्त हो गये। वे निराधार व त्राणरहित हो गये। सेवाल राजा को इस स्थिति में देखकर पहले से ही उसके शौर्यादि गुणों से मोहित कुमार ने अपने सैनिकों से संभ्रमपूर्वक कहा-“हे सुभटों! सुनो। जो कोई भी इस राजा पर प्रहार करेगा, उसने मेरे पिता की आज्ञा का लोप किया है, ऐसा मैं मानूंगा। अतः उसे कुछ भी नुकसान पहुँचाये बिना जीवितावस्था में ही मेरे पास लाओ।" यह सुनकर सभी सामन्तों ने उसे अपनी भुजाओं रूपी पिंजरे में पकड़कर कुमार के सामने उपस्थित किया। उस समय सेवाल राजा लज्जा से नम्र मुखवाला बन गया। यह देख उदार बुद्धियुक्त कुमार ने समयोचित वचनों के द्वारा कहा-“हे शूरवीर शिरोमणि! मुझे एक बालक ने जीत लिया है-ऐसा सोचकर आप लज्जित न बनें। हे महाभाग्यवान! मैंने आपको प्रपंच के द्वारा ही जीता है। आपको अपने पराक्रम द्वारा जीतने में कौन समर्थ है?" इस प्रकार सेवाल को आश्वासन देकर सप्तांग संपदा व विशाल सेना के साथ चन्द्रसेन कुमार अपनी नगरी की तरफ चला। मार्ग में आनेवाले उन-उन देश के स्वामियों ने चन्द्रसेन कुमार को गज-अश्वादि बड़े-बड़े उपहार भेंट में दिये। उन सब से वृद्धि को प्राप्त माहात्म्य-युक्त कुमार अपनी नगरी के समीप पहुँचा। उसका सर्व वृत्तान्त जानकर हर्ष से अत्यन्त उल्लसित राजा ने महा-पराक्रमी कुमार को भव्य नगर-प्रवेश अत्यन्त उत्सवपूर्वक करवाया। रास्ते में केले के स्तम्भों द्वारा मनोहर तोरणों की रचना करवायी और उन पर सुन्दर-सुन्दर वस्त्र लपेटवाकर अद्भुत रचना करवायी। घर-घर में बड़ी-बड़ी जय-पताकाएँ फहरायी गयीं। पग-पग पर चित्त को हरनेवाले नृत्यों का आयोजन किया गया। इस प्रकार राजा के आदेश से विशाल उत्सवमय नगर के भीतर कुमार का प्रवेश हुआ। उस समय कुमार ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो स्वयं जय रूपी यश के अवतार में अवतरित हो। श्वेत छत्र से शोभित, राज्यलक्ष्मी की क्रीड़ा के लिए मानो उज्ज्वल कमल हों, इस प्रकार के चामरों से दोनों भुजाओं की तरफ वींझित था। स्नेहयुक्त वारांगनाओं के समूह द्वारा विविध प्रकार के गायनों से आकाश और दिशाएँ वाचालित थीं। इस प्रकार समृद्धि से दैदीप्यमान राजमहल में कुमार ने प्रवेश किया। फिर पिता को प्रणाम करके उन्हें सेवाल राजा सौंप
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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