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________________ 56 / श्री दान- प्रदीप कमलनाल को छेदने के लिए क्या कुल्हाड़ी की धार तीक्ष्ण करनी पड़ती है? पर इसके पहले कुमार को अपने पिता के साथ ही युद्ध करना चाहिए, जिन्होंने जान-बूझकर द्वेषी की तरह उसे यहां भेजा है । " यह सुनकर दूत तुरन्त राजपुत्र के पास पहुँचा और प्रणाम करके एकान्त में सारा वृत्तान्त राजा को सुनाया। यह सब सुनकर चन्द्रसेन विस्मित होते हुए विचार करने लगा-"अहो! उसका गम्भीरतायुक्त कथन कितना सुन्दर है! मैंने अपनी प्रशंसा दू के माध्यम से उसके पास करवायी । यह मैंने ठीक नहीं किया, क्योंकि सत्पुरुषों के द्वारा आत्म-प्रशंसा करना महान लज्जा का स्थान है । सज्जन व्यक्ति वचनों से कम बोलते हैं और कार्य ज्यादा करते हैं। जैसे वर्षाऋतु के बादल गर्जना के आडम्बर से रहित होते हैं। पर यौवन से उद्धत मनयुक्त हमारे जैसे मुग्धजन शरदऋतु के बादलों की तरह वाणी की ही शूरता का आश्रय लेते हैं। वह सेवाल शत्रु है, पर मुझे लगता है कि वह गम्भीरता आदि गुण - लक्ष्मी का भण्डार है, क्योंकि उसकी कथन - शैली कितनी सुन्दर है! अतः इसके साथ जैसे-तैसे बिना विचारे युद्ध करना योग्य नहीं है, क्योंकि बिना विचारे कुछ भी करना विपत्ति का स्थान है।" इस प्रकार विचार करके उसने अपने प्रधान मंत्रियों को एकान्त में बुलवाकर अपना अभिप्राय उनके सामने रखा। उन्होंने भी परस्पर विचार करके कहा - " हे स्वामी! आपने जैसा कहा है, हमें भी वैसा ही लग रहा है। अतः हमें अपने चर - पुरुषों को गुप्त रूप से वहां भेजना चाहिए। वहां जाकर वे शत्रु के बल - अबल का पता लगा सकेंगे। उसके सामन्त उसके भक्त हैं कि अभक्त - यह भी पता लग जायगा । साथ ही किले के मार्गों का निर्गम व प्रवेश भी जान लेंगे। उसके बाद वे सारा वृत्तान्त हमें बता देंगे। तभी हमारा विजय देने योग्य सामभेदादि उपाय करना युक्तियुक्त होगा ।" इस प्रकार मंत्रियों के विचारों को मान देते हुए कुमार ने चार निपुण चरों को अलग-अलग वेश में तैयार करवाकर नगर की तरफ भेजा। उसमें से पहला चर सामवेद को जानता था। अतः उसने सेवाल राजा के पुरोहित का आश्रय ग्रहण किया। दूसरा बुद्धि का धनी था, अतः उसने वहां के महामंत्री का आश्रय लिया। तीसरा निमित्तज्ञ था, अतः उसने सेनापति का आश्रय ग्रहण किया। चौथा ज्योतिष का जानकार था, अतः वह राजा की सेवा करने लगा। परदेशी के रूप में प्रख्यात वे चारों अपनी-अपनी विद्या में पूर्ण निपुण थे, उस-उस कार्य में अग्रसर थे, अवसर के जानकार थे तथा प्रिय वचन बोलनेवाले थे। बुद्धिनिधान उन पुरुषों के अन्तर्हृदय को निपुण पुरुष भी जानने में शक्य नहीं थे। वे अपने-अपने अधिकार में उद्यमपूर्वक व सावधानी से प्रवर्त्तित थे । इस तरह थोड़े ही दिनों में
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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