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________________ 37/श्री दान-प्रदीप ऐसा विचार करके दोनों ने उनके भोजन में विष मिला दिया। वन में प्रवेश करते ही उन क्षत्रियों ने उन वणिकों को मार डाला। अहो! लोभ का कैसा विलास! उसके बाद उस विषमिश्रित भोजन को अनजानपने में खाने से वे दोनों क्षत्रिय भी मृत्यु को प्राप्त हुए। कुपात्र में रहा हुआ अर्थ किस-किस कदर्थना को नहीं करता? __उसी समय नन्दीश्वर द्वीप में रही हुई जिनप्रतिमा को वंदन करके वापस लौटते हुए कोई दो मुनि उनके समीप आये। उन चारों को मृत देखकर उन दोनों में से शिष्य-मुनि ने गुरु-मुनि से पूछा-"इन चारों ने किस कारण से एक साथ मरण को प्राप्त किया है?" गुरुदेव ने उत्तर दिया-"सुग्राम नामक ग्राम में विचित्र और पवित्र स्थितिवाले चार क्षत्रिय राजा के सेवक थे। एक बार राजा ने अपनी आज्ञा का खण्डन करने के कारण क्रोधित होते हुए किसी ग्राम को जला डालने के लिए अपने उन चारों सेवकों को आदेश दिया। अतः वे सेवक सन्ध्या के समय उस ग्राम में पहुँचे। पर उनका हृदय दया से आर्द्र हो गया। अतः उन्होंने परस्पर विचार किया-"पशु, बालक, स्त्री, ब्राह्मण व तपस्वियों से युक्त इस ग्राम को अगर हम जलायेंगे, तो हमें नरक में जाने जितना पाप लगेगा और अगर नहीं जलायेंगे, तो राजाज्ञा का उल्लंघन होगा। अहो! एक तरफ बाघ और दूसरी तरफ नदी के समान कष्ट हम पर आ पड़ा है। जो अपनी उदर-पूर्ति के लिए पापकर्म करके अपनी आत्मा को नरक में ले जाते हैं, उन अधम भृत्यों को धिक्कार है! धिक्कार है! वे उस नरक में असंख्य वर्षों तक दुःसह दुःखों को सहन करते हैं और इस लोक में भी पग-पग पर अपकीर्ति और अकालमृत्यु आदि कष्टों को प्राप्त करते हैं। वन के फल खाकर अपनी आजीविका चलाना अच्छा है, धर्मिष्ठ व्यक्ति के यहां दास के रूप में कार्य करना भी अच्छा है, पर दुरन्त पाप के स्थान रूपी राजा की सेवा करना ठीक नहीं है।" इस प्रकार विचार करके उन्होंने ग्राम की सीमा के पास धान के ढेर और घास के पुलों का ढेर करके उसमें आग लगा दी। प्रत्येक प्राणी को स्वकर्मानुसार लेश्या होती है। फिर ग्राम के दरवाजे पर जलाने का चिह्न बनाकर वे अपने-अपने घर चले गये। उस धान्य के ढेर के भीतर कोई किसान भयभीत बनकर छिपा हुआ बैठा था। वह उस ढ़ेर के साथ जल गया और मरकर वहीं वटवृक्ष के ऊपर व्यन्तर देव के रूप में उत्पन्न हुआ। जो अग्नि आदि के कारण मरता है, प्रायः उसकी गति व्यन्तरादि देवों में होती है। उधर वे चार क्षत्रिय राजसेवक करुणामय अध्यवसायों के कारण मरकर राजपुत्र, मंत्रीपुत्र, श्रेष्ठीपुत्र और आरक्षक पुत्र बने हैं। उन्हें इस वटवृक्ष के पास आया हुआ देखकर द्वेषबुद्धि से वह व्यन्तर अत्यन्त कुपित हुआ। वह विचार करने लगा-"इन व्यक्तियों ने मुझे पूर्वभव में बिना किसी कारण के जला कर मार डाला था। अतः ये सभी अपने आप ही मरण
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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