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________________ 36/ श्री दान-प्रदीप तब राजपुत्र ने कहा-"शीघ्र पड़ो।" फिर से वटवृक्ष के शिखर पर से वाणी ध्वनित हुई-"इसमें अत्यधिक अर्थ है, पर वह अनर्थ से युक्त है।" तब राजपुत्र ने कहा-"अगर अर्थ हो, तो अनर्थ का नाश ही होता है। क्या सूर्य का उदय होने पर अन्धकार का नाश नहीं होता? फिर भी अर्थ के कारण अनर्थ होता हो, तो भले ही हो, क्योंकि कर्पूर चबाने से दाँत गिरते हों, तो भले गिरें।" उसके बाद आकाश से तत्काल सुवर्ण-पुरुष नीचे गिरा। उसे देखकर राजपुत्र अत्यन्त हर्षित हुआ। लोभ के वशीभूत होकर उसने उस स्वर्णपुरुष को कहीं छिपा दिया। इसी प्रकार अन्य मित्रों की बारी आने पर भी उसी प्रकार आकाशवाणी के द्वारा उन्हें भी स्वर्णपुरुष की प्राप्ति हुई। उन तीनों ने भी लोभ के प्रभाव से अपने-अपने स्वर्णपुरुष को एक-दूसरे से छिपा लिया। प्रातःकाल होने पर भिन्न हृदयवाले हुए वे चारों छिपाये हुए अर्थ को परस्पर कहने की इच्छावाले सहोदरों की तरह इधर-उधर घूमने लगे। उसके बाद एक जातिवाले होने के कारण राजपुत्र और आरक्षकपुत्र परस्पर इकट्ठे हुए और एक-दूसरे को आपबीती सुनाने लगे। उसी प्रकार मंत्रीपुत्र और श्रेष्ठीपुत्र ने भी परस्पर इकट्ठे मिलकर एक-दूसरे को अपना वृत्तान्त सुनाया। ___इनमें से राजपुत्र और आरक्षकपुत्र परस्पर विचार करने लगे -"अनन्त पुण्यवानी से हमें यह स्वर्णपुरुष प्राप्त हुआ है। अतः उन दोनों मित्रों को इसे दिखाना ठीक नहीं होगा। उसका हिस्सा भी उन बनियों को देना उचित नहीं है। अगर कदाचित् उन्हें ज्ञात हो गया, तो मित्रता के कारण वे हमसे मांगने लगेंगे। नहीं देने पर क्लेश उत्पन्न होगा। अतः उन दोनों को पता न चले, इस प्रकार से हमें उन्हें खत्म कर देना चाहिए। अभी तो इन दोनों को भोजन लाने के लिए ग्राम में भेज देना चाहिए। ये लोग जब वापस भोजन लेकर लौटेंगे, तब वन में छिपकर अचानक खड्ग का वार करके उन्हें मार डालेंगे। उसके बाद घर जाकर उनके माता-पिता को भुलावे में डालकर हमलोग सुखपूर्वक अपने-अपने स्वर्णपुरुष का उपभोग करेंगे।" इस प्रकार विचार करके उन दोनों ने उन वणिक-पुत्रों को ग्राम में भेज दिया। यह लोभ रूपी पिशाच बुद्धि की किस-किस विपरीतता को नहीं करवाता? ग्राम की और जाते हुए वे दोनों वणिकपुत्र भी परस्पर विचार करने लगे-"अनेक सुकृतों के कारण हमें ये स्वर्णपुरुष प्राप्त हुए हैं। पर वे दोनों क्षत्रिय हैं, हम उनसे जीत नहीं पायेंगे और वे हमसे स्वर्णपुरुष छीन लेंगे। अतः अच्छा होगा कि हम दोनों उन्हें विष देकर मार डालें।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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