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________________ 369/श्री दान-प्रदीप में दान करना चाहिए, क्योंकि सुन्दर वचन दान में प्रशंसित होते हैं। जो दान प्रिय वचनों के साथ दिया जाता है, वही शुभ फल का प्रदाता बनता है। उसके सिवाय अन्य दान शुभ फल प्रदान नहीं करते, क्योंकि वैसे दान परलोक में अत्यन्त शिथिल फलयुक्त हो जाते हैं। इस विषय में एक दृष्टान्त पुराणों में कहा जाता है, उसे सुनो किसी समय हस्तिनापुर में युधिष्ठिर राजा राज्य करता था। वह 'लक्ष्मी का फल दान है-ऐसा जानने के कारण हमेशा स्वर्ण के पात्रों में अठारह हजार तापसों को भोजन करवाता था। उन तापसों को निमन्त्रित करने के लिए उसने अपने छोटे भाई भीम को आज्ञा प्रदान कर रखी थी, क्योंकि पात्र को स्वयं ही निमन्त्रण करना चाहिए अथवा स्वयं के पारिवारिक सदस्यों के द्वारा ही निमन्त्रण करवाना चाहिए। भीम तो स्वभाव से ही भीम था और फिर गदा से युक्त हो, तो उसका तो कहना ही क्या? अतः वह जैसे-तैसे अनादरयुक्त वचनों के द्वारा आक्रोशपूर्वक उनको शीघ्रता के साथ निमन्त्रित करता था। अतः वे तापस बाघ के समीप रहे हुए बकरों की तरह अच्छा-अच्छा भोजन करने के बावजूद भी भयसहित होने के कारण कृश होने लगे। ___ एक बार युधिष्ठिर राजा उन तापसों को कृश देखकर विचार करने लगे-"हहा! भक्तिपूर्वक भोजन करवाने के बावजूद भी ये तापस इतने अधिक कृश कैसे हो रहे हैं?" राजा ने उसका कारण महाबुद्धिशाली विदुर से पूछा। तब उन्होंने अच्छी तरह निश्चय करके यथार्थ हकीकत युधिष्ठिर से कही। वह सुनकर युधिष्ठिर ने विचार किया-"यह भीम जन्म से ही उद्धत प्रकृतिवाला है। अतः इसके दुर्वाक्यों का परिणाम दिखाये बिना उसे सीख नहीं मिलेगी।" ऐसा विचार करके युधिष्ठिर ने निमन्त्रित करने के बहाने से गंधमादन पर्वत पर यक्ष के पास भीम को भेजा। उसे आता हुआ देखकर यक्ष ने अपना मुख वस्त्र से ढंक लिया। पर भीम तो निर्भय था, अतः उसने उसके मुख पर से वस्त्र हटा दिया। उस समय भीम ने उसका मुख भुण्ड के समान भयंकर देखा और शरीर स्वर्ण के समान देखा। अतः विस्मित होते हुए उसने यक्ष से पूछा-“हे यक्ष! तूं तो अकेला ही इस गंधमादन पर्वत पर रहता है, फिर तुम्हारी काया स्वर्ण के समान और तुम्हारा मुख भुंड के समान क्यों है?" यह सुनकर यक्ष ने कहा-“मैंने काया के द्वारा तो स्वर्ण व रत्नों का दान किया, पर मुख के द्वारा कभी आदरयुक्त वचन नहीं कहे। अतः मेरी काया तो स्वर्ण के समान है और मुख भुण्ड के समान है। जीवों को शुभाशुभ की प्राप्ति में उसके पूर्वकृत कर्म ही कारण रूप होते हैं। मैंने पूर्वजन्म में दान दिया है, पर मुख से अच्छे वचन नहीं बोले। अतः मेरे शरीर में इस प्रकार की
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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