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________________ 368 / श्री दान- प्रदीप प्रशंसा करने लगे और पात्रदान में आदरयुक्त बने । फिर उन रत्नों के द्वारा वह दानेश्वरी धन महान प्रतिष्ठा को प्राप्त हुआ । उदारता रूपी भूषणवाली लक्ष्मी किस-किस महिमा को प्रदान नहीं करती? पात्रदान से पवित्र हुए धर्म की चिरकाल तक आराधना करके वह धन देवगति को प्राप्त हुआ और अनुक्रम से मोक्ष को भी प्राप्त हुआ ।" अतः हे बुद्धिमान पुरुषों! इसलोक और परलोक की आशंसा के बिना ही सुपात्रदान में प्रवृत्ति करनी चाहिए, जिससे निर्विघ्न रूप से दोनों लोकों की समग्र सम्पदाएँ स्वयं ही आकर तुम्हारा वरण करे | विवेकी पुरुषों को कभी भी अनादरपूर्वक दान नहीं देना चाहिए, क्योंकि अनादरपूर्वक दिये गये दान से इसलोक में तो कीर्ति प्राप्त होती ही नहीं, परलोक में भी कल्याण रूपी शुभगति प्राप्त नहीं होती । बुद्धिमान पुरुषों को अपनी-अपनी सम्पत्ति के अनुसार थोड़ा या ज्यादा दान आदरपूर्वक ही देना ही चाहिए, क्योंकि आदर ही कल्याणकारी व फलदायी है । आदर के बिना दिया गया दान, विनय के बिना ग्रहण की गयी विद्या और क्षमा के बिना तपस्या-ये तीनों क्लेश के लिए ही होते हैं । सुपात्र में तो लेशमात्र भी अनादर नहीं करना चाहिए, क्योंकि सुपात्र की अवज्ञा करने से तो दातार को अशुभ फल ही प्राप्त होता है । सुपात्र की अवज्ञा करनेवाला उसके गुणों की ही अवज्ञा करता है। उन गुणों की अवज्ञा के द्वारा गुण दुःखी होते हुए उस पुरुष के पास कभी भी नहीं जाते। उन गुणों के अभाव में वह पुरुष दोषयुक्त ही बनता है। दोष के कारण उसकी पापकर्मों में प्रवृति बढ़ती है, जिसके कारण वह दुर्गति प्राप्त करता है। अनादर से दान देनेवाले का शुभभाव हीन होता है और जैसे तेल के हीन होने से दीपक का प्रकाश क्षीण होता है, वैसे ही उसका पुण्य भी क्षीण हो जाता है। पुण्य के क्षीण हो जाने से दान के शुभ फल की भी हानि हो जाती है, क्योंकि कारण की हीनता के कारण कार्य की भी हानि हो जाती है। अतः निर्मल चित्तवाले पुरुषों को आदरपूर्वक दान देना चाहिए। यह आदर मन, वचन व काया के रूप में तीन प्रकार का हो सकता है। पात्र को देखकर एकदम खड़े हो जाना, उसके सन्मुख जाना, हर्षाश्रु आ जाना, मुख का विकस्वर होना और सर्वांग से रोमांचित हो जाना आदि आनन्द के प्रभाव के समूह से जिसका शरीर सौभाग्ययुक्त बन जाता है, ऐसा पुरुष उत्तम पात्र को जो दान देता है, वही दान गौरव के लायक है और यह दान ही काया का आदर कहलाता है । 'अहो ! मेरे पुण्य आज फलीभूत हुए। अहो ! मेरा आज का दिन पवित्र हुआ, जिससे कि हे स्वामी! आप जंगम कल्पवृक्ष के समान मेरे घर पर पधारे हैं। यह सभी एषणीय अन्न, जल, खादिम और स्वादिम है । आप इन्हें ग्रहण करके मुझे कृतार्थ करें ।' - इस प्रकार आदरपूर्वक वचन की युक्ति के द्वारा जिसकी भक्ति का स्पष्ट निश्चय होता हो, ऐसे बुद्धिमान पुरुष को पात्र
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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