SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 356/श्री दान-प्रदीप अन्याय के ज्ञाता उस सर्प ने उसे डस लिया। ऐसा होना योग्य भी है। अतः मेरे द्वारा भी उस निधि को ग्रहण करना किसी भी रीति से योग्य नहीं है, क्योंकि न ग्रहण करने योग्य वस्तु को ग्रहण करता हुआ राजा भी शुभ फल को प्राप्त नहीं करता। इस विषय में नीतिशास्त्र में भी कहा है : अनादेयं न गृह्णीयात्, परिक्षीणोऽपि पार्थिवः। न चादेयं समृद्धोऽपि, सूक्ष्ममप्यर्थमुत्सृजेत् ।। भावार्थ:-राजा अगर धन से क्षीण भी हो गया हो, तो भी उसे न ग्रहण करने योग्य वस्तु को ग्रहण नहीं करना चाहिए और समृद्धिवान हो, तो भी उसे ग्रहण करने योग्य अल्प वस्तु का भी त्याग नहीं करना चाहिए।। अतः वह निधान निश्चित रूप से तुम्हारा ही है। तुम ही उसे ग्रहण करो और इच्छानुसार उपभोग करो। जैसे तुम्हारे सुकृत्यों ने तुम्हें वह निधि प्रदान की है, वैसे ही मैं भी तुम्हें वह निधि प्रदान करता हूं।" ऐसा कहकर राजा ने उस उत्तम श्रेष्ठी को सत्कारपूर्वक विदा किया। तब वह अपने घर गया और चुगली करनेवाले खल पुरुष का मुख स्याह हो गया। फिर शुभ दिन सर्व शुभ लक्षणों से युक्त उस नये घर में श्रेष्ठी ने निवास किया। वर्षाऋतु के मेघ की तरह लोगों को प्रसन्न करते हुए और पुण्य रूपी उद्यान की वृद्धि करते हुए उत्सव उसके घर में प्रवर्तित होने लगे। उस निधि के द्वारा उसके तीनों पुरुषार्थ निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होने लगे, क्योंकि सत्पुरुषों की लक्ष्मी दान और भोग के लिए ही होती है। जिनके ज्ञान रूपी दर्पण में तीनों लोक का प्रतिबिम्ब पड़ता हो और जिन्होंने अंतःकरण के कर्म रूपी मैल को धो डाला हो-ऐसे केवली भगवान एक बार उस नगर के उद्यान में पधारे। उस समय भक्ति से दैदीप्यमान देवताओं ने मानो धर्म रूपी लक्ष्मी के क्रीड़ा करने के लिए एक विशाल स्वर्ण कमल की रचना की। शुद्ध 'पक्ष के द्वारा शोभित और तत्त्व और अतत्त्व के विवेक को करनेवाले वे श्वेताम्बर मुनि हंस की तरह उस कमल पर बैठे। उनके आगमन का श्रवण करके हर्ष के समूह से शोभित राजा, श्रेष्ठी और पुरजन उन्हें वंदन करने के लिए आये। तीन प्रदक्षिणा देकर चन्दन की तरह उनकी चरणरज को कपाल पर तिलक के रूप में लगाकर उन्होंने केवली को प्रणाम किया। उसके बाद उन मुनीश्वर ने कुमार्ग पर जाते हुए प्राणियों को सन्मार्ग पर लाने के लिए मानो शब्द कर रहे हों इस प्रकार धर्मजल से भरे हुए मेघ की गर्जना के समान गम्भीर वाणी में देशना प्रदान करते हुए कहा-"रूप, आयुष्य, नीरोगता और वीर्य 1. साधु-परिवार अथवा माता-पिता का पक्ष । हंस के पक्ष में पक्ष अर्थात् पंख।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy