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________________ 355/श्री दान-प्रदीप ऐसे क्लिष्ट परिणाम का चिन्तन करते हुए उसे निद्रा आ गयी। रात्रि में मानो उसके रौद्र ध्यान से उत्पन्न मूर्तिमान पाप ही हो-इस प्रकार से कृष्ण सर्प ने आकर उसे डस लिया। उस समय मानो नरक के दुःख का स्वाद ही भोग रहा हो-इस प्रकार एक घड़ी तक विष के आवेश की तरंगों से युक्त उग्र वेदना को वह भोगने लगा। जैसे ब्राह्मण चाण्डाल का दूर से ही त्याग करता है, वैसे ही उस पापी का संग योग्य नहीं है-ऐसा विचार करके मानो प्राणों ने भी उसका साथ छोड़ दिया। असत्य भाषण कीर्ति का नाश करता है, सैकड़ों विपत्तियों को प्राप्त करवाता है, दुःखों को प्रदान करता है, सुख का नाश करता है, धर्म की जड़ को काट डालता है और पाप का विस्तार करता है। ऐसे असत्य भाषण को कौन बुद्धिमान पुरुष स्वीकार करेगा? उसके बाद धनपति सेठ के पुण्य और धनावह वणिक के उस प्रकार के पाप को दिखाने के लिए सूर्य आकाश में चढ़ आया। धनावह के मरण का वृत्तान्त जानकर मनुष्य परस्पर कहने लगे-“वास्तव में धनपति के पुण्य से ही वह निधि प्रकट हुई है। धनावह ने धनान्ध होकर असत्य ही कहा है। पुण्यरहित वह धनावह उस निधि को देखने तक में समर्थ नहीं था। हहा! वह अकाल में ही कैसे मरण को प्राप्त हुआ? अथवा तो असत्यवादी के लिए यह योग्य ही हुआ है। उसने निधियुक्त अपना घर बेचकर दूर से ही उसका त्याग कर दिया। अतः निश्चय ही वह निर्भागियों में शिरोमणि व दरिद्रों में अग्रसर था। धनपति सेठ का अगण्य पुण्य जागृत है कि उसे पराये घर में रहा हुआ निधान भी प्राप्त हुआ। निश्चय ही उसने पूर्वभव में उग्र तपश्चर्या की होगी कि जिससे समुद्र में नदियों की तरह उसके पास लक्ष्मी अपने आप ही आ गयी।" इस प्रकार लोगों में उन दोनों की कीर्ति और अपकीर्ति (श्वेत जलयुक्त) गंगा और (मलिन जलयुक्त) यमुना के संगम की तरह शोभित होने लगी। फिर किसी पुरुष ने इस निधान की बात राजा तक पहुँचा दी। दुर्जन व्यक्ति अन्यों को संतप्त करने में सर्प के समान होता है। राजा ने धनपति सेठ को बुलवाया। वह तत्काल राजसभा में गया, क्योंकि पवित्र आचरण से युक्त पुरुष सर्वत्र निःशंक होते हैं। राजा ने उससे पूछा, तब उसने सारा वृत्तान्त सच्चाई के साथ राजा के समक्ष कह दिया, क्योंकि कभी भी असत्य का आश्रय नहीं लेना चाहिए और राजा के सामने तो बिल्कुल भी असत्य नहीं बोलना चाहिए। उसके वचनों को सम्यग् प्रकार से श्रवण करने के बाद राजा का मुख विस्मय से विकस्वर हो गया। अतः हर्षपूर्वक उसे बहुमान देकर राजा ने कहा-“हे सेठ! तुम्हारे उत्कृष्ट पुण्य के द्वारा तुम्हें निधि प्राप्त हुई है। अन्यथा आज तक यह निधि अन्यों को प्राप्त क्यों नहीं हुई? इस निधि को ग्रहण करने के लिए धनावह ने तुम्हारे साथ कलह किया, तो मानो
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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