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________________ 343/श्री दान-प्रदीप कितने ही प्राणी दीर्घ आयुष्य होने के बावजूद भी अंतःकरण में उग्र मोह व्याप्त हो जाने के कारण धर्म के नाम का श्रवण करना भी नहीं चाहते, जैसे मृत्यु को धारनेवाला मनुष्य औषध के समीप भी नहीं जाना चाहता। कितने ही प्राणियों की धर्मश्रवण की इच्छा होने के बावजूद भी जैसे राजा के दर्शनों की इच्छा होते हुए भी द्वारपाल उसे रोक देता है, वैसे ही आलस्यादि प्रमाद के द्वारा वे जबरन निषेध कर दिये जाते हैं। कितने ही धर्मश्रवण करने के बावजूद भी अल्पबुद्धि से युक्त होने के कारण जैसे नमक और तेल का व्यवसायी स्वर्ण का व्यापार नहीं कर सकता, वैसे ही सम्यग् प्रकार से वे धर्म को हृदय में धारण नहीं कर सकते। कितने ही प्राणी अपने हृदय में धर्म को धारण तो कर लेते हैं, पर निकाचित कर्म के कारण उन्हें धर्म पर श्रद्धा नहीं होती, जैसे दुष्ट पुरुष अन्यों के गुणों पर श्रद्धा नहीं करते। कितने ही मनुष्य धर्म पर श्रद्धा रखते हुए भी उनके मन विषयों में आसक्त होने से दिन-रात भूत-प्रेत से आविष्ट की तरह धर्म का अनुष्ठान नहीं कर पाते। इस प्रकार एक भी अवयव के बिना मनुष्यों का धर्म रूपी रथ मोक्ष के मार्ग पर प्रयाण करने में समर्थ नहीं होता। ___अतः हे भव्य प्राणियों! ऐसे दुर्लभ धर्म के अंग की सर्व सामग्री को प्राप्त करके सुख के एकमात्र कारण रूपी धर्म में जरा भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। कुकर्म का मथन करनेवाला धर्म अपार संपत्ति का महल है। भावशत्रु से भयभीत होनेवाले प्राणियों के लिए धर्म ही एकमात्र बख्तर है। जैसे मेघ से वनस्पति उत्पन्न होती है, वैसे ही धर्म से सुख उत्पन्न होता है और कुल्हाड़ी से वनस्पति की तरह पाप के द्वारा सुख मूल से उखाड़ा जाता है। धर्म के द्वारा ही सर्व संपत्ति प्राप्त होती है और पाप के द्वारा सर्व आपत्ति प्राप्त होती है। इस विषय में हे पृथ्वीनाथ! तुम्ही दृष्टान्त रूप हो।" __इस प्रकार सुनकर ध्वजभुजंग राजा तथा सभी लोग आनन्द को प्राप्त हुए। मन को इष्ट कथा का श्रवण करने से किसे आनन्द नहीं होगा? उसके बाद हर्षित ध्वजभुजंग राजा ने मन में विचार किया कि अहो! मुझ पर गुरु की कैसी निःसीम कृपा है कि मेरे द्वारा न पूछे जाने पर भी स्वयं ही मेरा पुण्य प्रकट किया है। अतः राजा ने हाथ जोड़कर प्रत्यक्ष विज्ञप्ति की-"हे पूज्य! कृपा करके मेरा पूर्ण वृत्तान्त बताइए।" __तब श्रीगुरुदेव ने उसका पूर्वभव बताना प्रारम्भ किया-"पाप की विशाल लता के समान किसी पल्ली में अतुल भुजबल से युक्त और प्रचण्ड चंडपाल नामक पल्लीपति था। उसका पराक्रम उद्धत भुजदण्डवाले शत्रुओं के गर्व रूपी ज्वर का नाश करने में उग्र औषधि रूप था। समर्थ, अमित धनयुक्त और अगणित सार्थों को लूटकर पाप के समूह की तरह धन का समूह उसने इकट्ठा किया था। किसी से पराभव को न प्राप्त होनेवाले उस अनार्यबुद्धि युक्त पल्लीपति ने समृद्धि में मनोहर ग्रामों को तोड़-तोड़कर अपने राज्य की वृद्धि की थी। निर्दयतापूर्वक
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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