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________________ 342/श्री दान-प्रदीप बिना यत्न के प्राप्त विशाल समृद्धियुक्त राज्य को भोगते हुए राजा उस प्रिया के साथ इन्द्र-इन्द्राणी के समान शोभित होता था। ___ एक बार उस सुरपुर के उद्यान में उत्कृष्ट श्रुतज्ञान के धारी और अतिशय माहात्म्य रूपी वैभव से युक्त श्रीयशोधर्म नामक आचार्य पधारे। इन्द्र को देवों की तरह और राजा को मनुष्यों की तरह उन गुरुदेव का नमन करने के लिए प्रीतिपूर्वक पुरजन आये। ध्वजभुजंग राजा भी गुरु के आगमन का श्रवण करके अत्यन्त हर्षोल्लास के साथ तत्काल वंदन करने के लिए गया। कल्याणकारक भक्तियुक्त उस राजा ने कपूर की तरह पृथ्वी के रजसमूह द्वारा अपने कपाल में तिलक करते हुए उन्हें हर्षपूर्वक वंदन किया। उस समय गुरु ने राजा को अमृतवृष्टि के समान धर्माशीष के द्वारा सन्तोष प्राप्त करवाते हुए कल्याणकारक धर्मदेशना प्रदान की 'इस असार संसार में प्राणियों को चिन्तामणि रत्न की तरह मनुष्य जन्मादि धर्म की सामग्री मिलना दुर्लभ है। पहले तो निगोद में प्रतिक्षण सतरह बार मरण प्राप्त करते प्राणी अनन्तकाल का निर्गमन करते हैं। वहां से निकलकर पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय और वायुकाय-प्रत्येक में असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल तक रहते हैं। वहां से निकलकर बोधिरहित विकलेन्द्रियता प्राप्त करके उसमें भी संख्यात लाख वर्षों तक अत्यन्त दुःखी अवस्था में रहते हैं। वहां से निकलकर तिर्यंच पंचेन्द्रिय योनि में उत्पन्न होकर जलचर, स्थलचर और खेचर की जाति में वे पापी प्राणी महाकष्ट के द्वारा करोड़ों पूर्व वर्षों का निर्गमन करते हैं। वहां से निकलकर नरक में उत्पन्न होते हैं। वहां पापसमूह के भार के कारण सुख का लेशमात्र भी प्राप्त किये बिना असंख्यात काल का निर्गमन करते हैं। उसके बाद पर्वतनदी के प्रवाह से गोलाकार को प्राप्त पत्थर के न्याय से कितने ही प्राणी मनुष्यत्व को प्राप्त करके भी अनार्य देश में उत्पन्न होने के कारण धर्म का नाम तक नहीं जानते। कितने ही प्राणी आर्यदेश में उत्पन्न होने के बावजूद भी म्लेच्छ जाति में उत्पन्न होने के कारण ऐसे-ऐसे दुष्कर्म करते हैं, जिससे संसार में अनंत दुःखों को प्राप्त होते हैं। कितने ही प्राणी शुभ जाति में उत्पन्न होने के बावजूद भी मिथ्यात्व से वासित होने के कारण सद्धर्म को नहीं प्राप्त कर पाते, जैसे कि मदिरा को पीनेवाला पुरुष सुस्थिति को प्राप्त नहीं होता। कितने ही प्राणी श्रावक कुल में उत्पन्न होने के बावजूद भी इन्द्रियों की विकलता के दोष से दूषित होने के कारण धर्म का आराधन उसी तरह नहीं कर पाते, जैसे अल्प धनवाला मनुष्य दानधर्म नहीं कर पाता। कितने ही प्राणी मनोहर इन्द्रियाँ होने के बावजूद भी व्याधिग्रस्त शरीर होने के कारण व्यापार करने में आलसी मनुष्य की तरह धर्मकार्य करने में समर्थ नहीं होते। कितने ही मनुष्य व्याधिरहित होने के बावजूद भी अत्यल्प आयुष्ययुक्त होने के कारण वैसे ही पुण्य का वहन करने में अर्थात् धर्म का साधन करने में समर्थ नहीं होते, जैसे दरिद्र मनुष्य गृहस्थाश्रम का वहन नहीं कर सकता।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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