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________________ 276/श्री दान-प्रदीप तथा झूठी साक्षी देने के कारण सिद्धदत्त को बीस करोड़ द्रव्य का दण्ड दिया। वह सभी के साथ द्वेषभाव रखता था, अतः किसी ने भी उसका साथ नहीं दिया, क्योंकि जो महाजनों का विरोधी होता है, वह सुखलक्ष्मी का संबंधी (भोगनेवाला) नहीं हो सकता। एक बार मनोहर रूपयुक्त वे दोनों अर्थात् सिद्धदत्त और धनदत्त राजमार्ग से जा रहे थे। उस समय उन दोनों ने महल के झरोखे में बैठी हुई रतिश्री नामक मंत्रीपत्नी को देखा। उसने भी उन दोनों को देखा, तो मोहासक्ति के कारण उन पर अत्यन्त अनुरक्त हो गयी। वास्तव में नदी, बिजली और स्त्री में स्थिरता नहीं होती। चक्षु अपने विषय में आये हुए रूप को देखे बिना रह नहीं सकता। उस समय विवेकशाली धनदत्त ने विचार किया-“सराग दृष्टि के द्वारा परस्त्री को देखना भी उभयलोक से विरुद्ध आचरण यह विचार करके उद्वेग करनेवाले शत्रु से, भयंकर सर्प से और प्रचण्ड ताप से युक्त सूर्य से जिस प्रकार दृष्टि खींच ली जाती है, उसी प्रकार धनदत्त वहां से दृष्टि हटाकर आगे चल पड़ा। उधर कामान्ध हुआ सिद्धदत्त ऊपर दृष्टि रखकर उस स्त्री की और देखता हुआ जमीन में गाड़े गये स्तम्भ की तरह स्तम्भित हो गया। उसके साथ हास्य, दृष्टिविन्यास आदि क्रियाएँ करते हुए निर्लज्ज सिद्धदत्त को सिपाहियों ने देख लिया। तत्काल उसे पकड़कर बांधकर राजा के सामने पेश किया गया, क्योंकि इस भव में तो राजा ही पापियों को शिक्षा प्रदान करता है। राजा ने पुनः उस पर क्रोधित होते हुए उसे दस करोड़ द्रव्य का दण्ड दिया। अन्यायी के घर कभी भी लक्ष्मी स्थिर नहीं रहती। इस प्रकार विवेक-विकलता के कारण सिद्धदत्त का धन कम होता गया और विवेकयुक्त होने से धनदत्त का धन बढ़ता ही चला गया। एक बार धनदत्त के घर एकान्त में कोई व्यापारी आया। उसने उसे दस करोड़ मूल्य के रत्न दिखाये। देखकर धनदत्त ने उन रत्नों का मूल्य पूछा। तब उस व्यापारी ने उनका मूल्य दस हजार बताया। यह सुनकर बुद्धिमान धनदत्त ने विचार किया-"ये रत्न तो अत्यधिक मूल्यवान हैं। पर यह अत्यल्प मूल्य बता रहा है। जरूर यह कहीं से चोरी करके लाया है। चोरी करके लायी हुई वस्तु को जो खरीदता है, वह भी चोर के समान ही दण्ड का अधिकारी होता है।" इस तरह विचार करने के बाद अत्यधिक लाभयुक्त सौदा होने के बावजूद भी उसने रत्न नहीं खरीदे। उसके बाद वह व्यापारी सिद्धदत्त के पास गया। उसे भी रत्न दिखाये। महालाभ देखकर एकान्त में उसने वे रत्न खरीद लिये। कूट व्यापार को करते हुए वणिक लाभ को ही देखता है, पर दूध पीती हुई बिल्ली जिस प्रकार लकड़ी को नहीं देखती, उसी
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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