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________________ 275/श्री दान-प्रदीप छोड़ दी। वह बकरी मानो पूर्वकर्म के वैभव का शोध कर रही हो-इस प्रकार से इधर-उधर फिरने लगी। इस प्रकार फिरते हुए उसे उसी दिन किसी वरूए ने मार दिया। इस प्रकार धनदत्त ने दो-तीन बार बकरी खरीदकर वन में छोड़ी, पर दोनों-तीनों बार वह मरण को प्राप्त हो गयी। अतः धनदत्त ने अपने गिरते हुए दिनों को जानकर कोई भी विशेष प्रकार का व्यापार नहीं किया। विवेकी पुरुष अच्छे-बुरे दिनों की पहचान करके कार्य में यत्न करते हैं। कितना ही समय बीत जाने के बाद उसने फिर से बकरी खरीदकर वन में चरने के लिए छोड़ी। बकरी ने उसी दिन प्रसव किया। इसी प्रकार अन्य-अन्य बकरियाँ खरीदीं, तो वे सभी प्रसव करने लगीं। थोड़े ही दिनों में उसके घर बकरियों का एक विशाल समूह हो गया। उसने इस घटना के द्वारा अपने चढ़ते हुए दिनों को मानकर परदेश से आये हुए जहाज में से पाँच लाख स्वर्णमोहरों के द्वारा माल खरीद लिया। उसके ठीक सातवें दिन अन्य द्वीप में से कोई वाहन का व्यापारी आया। उसने वह सारा माल उस व्यापारी को बेच दिया। उसमें उसे दुगुना लाभ मिलने से वह दस लाख का स्वामी बन गया। अपने कर्म अनुकूल हों, तो कहीं भी संपत्ति दुर्लभ नहीं है। इस प्रकार बहते हुए पानी के निर्झर की तरह निरन्तर उसके व्यापार के द्वारा उसकी ऋद्धि उद्यान-लक्ष्मी की तरह वृद्धि को प्राप्त होने लगी। अनुक्रम से वह बारह करोड़ सोनैयों का स्वामी बना। पुण्य जिसकी सहायता करे, ऐसा व्यापार वास्तव में कल्पवृक्ष ही है। एक बार धनदत्त और सिद्धदत्त ने मार्ग में कहीं राजपुत्र और सामन्तपुत्र को कलह करते हुए देखा। यह देखकर "दावानल की तरह कलह के पास खड़े रहना योग्य नहीं है"-ऐसा विचार करके धनदत्त नरक की तरह उन दोनों को देखकर दूर से ही निकल गया। __ "क्या इनका कलह उछलकर मुझसे चिपक जायगा?"-इस प्रकार विचार करके उद्धत बुद्धि से युक्त सिद्धदत्त उनके पास चला गया। उन दोनों ने उसी को अपने न्याय-अन्याय में साक्षीभूत कर लिया। फिर वे दोनों लड़ते हुए राजसभा में पहुँच गये। दोनों ने अपने-अपने पक्ष को न्यायभूत और दूसरे के पक्ष को अन्यायभूत बताया। राजा ने पूछा-"इस बात का साक्षी कौन है?" तब उन दोनों ने ही सिद्धदत्त का नाम बताया। उसे बुलाकर राजा ने हकीकत पूछी। उस समय विवेक विकल सिद्धदत्त ने मान्य करने लायक राजपुत्र को दोषी और सामन्तपुत्र को न्याययुक्त बताया। यह सुनकर राजा ने क्रोधित होते हुए उस साक्षी को गलत बताया
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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