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________________ 176/श्री दान-प्रदीप का त्याग करके श्रीगुरु को पंचांग नमस्कार करके उचित स्थान पर बैठा। गुरु महाराज ने भी राजादि सभी को पुण्य का पोषण करनेवाली धर्मलाभ रूपी आशीष के द्वारा संतुष्ट करके धर्मदेशना का श्रवण कराया- "हे भव्यजीवों! उत्तम कुलादि सहित इस दुर्लभ मनुष्यभव को प्राप्त करके प्रमाद का त्याग करके धर्म का सेवन करना चाहिए, क्योंकि धर्म एकान्त हितकारक तथा परलोक में सहायककारक आदि गुणों से युक्त होने से बंधुजनों व धनादि से अधिक प्रधान कहलाता है।" इत्यादि धर्मदेशना का श्रवण करके राजा का मन व्रत लेने के लिए तत्पर हुआ। फिर भी अपना पूर्वभव जानने की इच्छा से उसने सद्गुरु से पूछा-"हे स्वामी! मुझ पर कृपा करके मेरे पूर्वभव का वृत्तान्त बतायें।" तब गुरुदेव ने भी श्रुतज्ञान के द्वारा उसके पूर्वभव को जानकर कहा-"इस भरतक्षेत्र में हाथियों का निवास स्थान विन्ध्याचल नामक पर्वत है। उसकी तलेटी में सोमपल्ली नामक एक पल्ली थी। उसमें भद्रिक स्वभाव से युक्त सोम नामक पल्लीपति था। उसके नाम व क्रिया से भी युक्त सोमा नामक प्रिया थी। एक बार दमघोष नामक महर्षि सार्थ से अलग होकर रास्ता भूलकर इधर-उधर अटन करते हुए मानो पल्लीपति के पुण्य से प्रेरित होकर उस पल्ली में पहुँच गये। जैसे बाघ उत्तम बैलों को उपद्रवित करते हैं, उसी प्रकार बुद्धिरहित व अत्यन्त रौद्र परिणामी भील उन मुनियों को उपद्रवित करने लगे। पर कृपा के समूह से विकस्वर उस निपुण पल्लीपति ने उन मुनियों को उनके चंगुल से इस प्रकार मुक्त करवाया, मानो अपनी आत्मा को नरक से मुक्त करवाया हो। फिर भक्तिपूर्वक उनके साथ जाकर उन्हें किसी नगर में सुरक्षित पहुंचा दिया। दयालू व्यक्तियों का विवेक ऐसा ही होता है। फिर आनन्दपूर्वक उन मुनियों को नमस्कार करके वह पल्लीपति वापस अपने घर की और लौटा। उस समय मुनीश्वरों ने उससे कहा-“हे भद्र! पुण्यरहित उन भीलों के उपद्रव से तुमने अनुकरणीय करुणा के द्वारा हमें मुक्त करवाया है। एक सामान्य प्राणी का रक्षण भी विशाल सम्पत्ति प्राप्त करवाता है, तो अतिचार रहित चारित्र का पालन करनेवाले महात्माओं के संरक्षण से अगर समृद्धि प्राप्त हो, तो उसमें क्या आश्चर्य? अतः पुण्य के प्रभाव से तुम संपत्ति का स्थान बनोगे, पर फिर भी परिणाम में हितकारक ऐसा कोई उपकार हम तुम पर करना चाहते हैं।" तब पल्लीपति ने भी कहा-“हे पूज्य! भविष्यकाल में जो हितकारक हो, वह आप शीघ्र कहें। मैं उसमें निरन्तर यत्न करुंगा।" तब उन गुरु ने मोक्षलक्ष्मी के दूत के समान पंच परमेष्ठि नमस्कार मंत्र का उपदेश
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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