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________________ 175/श्री दान-प्रदीप प्रकार के शाकादि मनोहर भोजन करवाकर जीवनभर अपनी पीठ पर बिठाकर उनका वहन करे, तो भी माता-पिता के उपकारों से उऋण नहीं हो सकता। पर अगर वह माता-पिता को केवलीभाषित धर्म कहकर प्रज्ञापना करके उन्हें धर्म में स्थिर करे, तो वह माता-पिता के उपकारों से उऋण हो सकता है।" यह सुनकर रत्नसार ने भी "गुरुजनों की वाणी उल्लंघन के योग्य नहीं है"-इस प्रकार विचार करके राजा की आज्ञा को स्वीकार किया। जो पिता की आज्ञा को स्वीकृत करता है, वही पुत्र होता है। उसके बाद श्रेष्ठ बुद्धिसंपन्न राजा ने उत्सवसहित पुत्र पर साम्राज्य के भार को आरोपित किया और स्वयं ज्ञानभानु नामक गुरुदेव के पास चारित्र अंगीकार किया। उन राजर्षि ने एक हजार वर्ष तक दुष्कर तपस्या की, कर्मों का क्षय किया और केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष चले गये। राज्योपभोग करते हुए एक बार रत्नसार राजा रात्रि के अन्तिम प्रहर में द्रव्य और भाव से जागृत होते हुए विचार करने लगा-"पूर्वजन्म में मैंने ऐसे कौनसे शुभकर्म किये होंगे कि जिससे इस प्रकार का ऐश्वर्य मुझे अनायास ही प्राप्त हुआ है? कोई अतिशय ज्ञानी साधु महाराज यहां पधारें, तो उन्हें प्राप्त वैभव का कारण पूछकर शंका-रहित बनूं।" इस प्रकार विचार करते-करते रात्रि व्यतीत हो गयी और चारों तरफ अंधकार का नाश करता हुआ निर्मल प्रकाश उदित हुआ। नरनाथ रत्नसार ने प्रातःक्रिया करके राजसिंहासन को सुशोभित किया, जिस प्रकार इन्द्र सुधर्म सभा को सुशोभित करता है। तभी उद्यानपालक ने आकर राजा से विज्ञप्ति की-“हे स्वामी! हमारे कुसुमाकर नामक उद्यान में अभी-अभी अनेक शिष्यों के परिवार से युक्त, जिनागम के ज्ञाता और विविध लब्धियों से युक्त श्री विनयंधर नामक सूरि महाराज पधारे हैं।" यह सुनकर राजा के शरीर पर हर्ष से रोमांच रूपी कंचुक विकस्वर हुआ। अपने वांछित अर्थ की तत्काल सिद्धि पाने से अत्यन्त हर्षित होकर राजा विचार करने लगा-"अहो! आज मुझे अकस्मात् गुरु महाराज का समागम प्राप्त हुआ है। बादलों के बिना ही मानो मेघ की वृष्टि हुई है। पुष्प के बिना ही फल की ऋद्धि प्राप्त हुई है। मेरा पुण्य आज परिपक्व हुआ है अर्थात् उदय में आया है।" फिर राजा ने उद्यानपालक को प्रीतिदान देकर संतुष्ट किया, क्योंकि विवेकी पुरुष कभी भी उचित कर्तव्यों का उल्लंघन नहीं करते। फिर राजा हाथी पर सवार होकर अपने परिवार व पुरजनों के साथ अद्भुत समृद्धि से युक्त होकर तुरन्त उद्यान में आया। वहां पाँच राजचिह्नों
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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