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________________ 168/श्री दान-प्रदीप समय पर अपनी कांति के द्वारा दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ पुत्ररत्न प्रसव किया। प्रियंवदा नामक दासी ने हर्षपूर्वक राजा को बधाई दी–"हे देव! देवकुमार के प्रतिबिम्ब के रूप में पुत्ररत्न को महारानी रत्नप्रभा ने प्रसव किया है।" यह सुनकर राजा भी हर्ष से प्रफुल्लित हुआ और उस दासी को सारभूत अलंकार, वस्त्रादि इच्छित वरदान देकर उसे लक्ष्मी द्वारा दासपने से मुक्त किया। फिर अगले दिन देवों को भी आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला पुत्र-जन्मोत्सव राजा ने किया। सूतक निवृत होने के बाद राजा ने स्वजनों का सन्मान करके स्वप्नानुसार उस पुत्र का नाम रत्नसार रखा । प्रेम रूपी जल के पात्र के समान धात्रियों द्वारा लालन-पालन किया जाता हुआ कुमार माता-पिता के मनोरथों के साथ वृद्धि को प्राप्त हुआ। जब कुमार आठ वर्ष का हुआ, तब माता-पिता ने विचार किया कि "गुणरत्नों की खान रूपी इस कुमार को अब पढ़ाना उचित है। अनेक आभूषणों का शृंगार कर लेने पर भी मनुष्य विद्या रूपी अलंकार के बिना शोभित नहीं होता। सुगन्धरहित पुष्प मनोहर वर्णयुक्त होने पर भी क्या शोभा को प्राप्त होता है? पुरुष कला के अभ्यास के बिना कुल की शोभा को नहीं बढ़ा सकता। गलाये बिना स्वर्ण क्या आभूषणों की शोभा को प्राप्त होता है? विद्या ही मनुष्य का अनुपम रूप है। विद्या ही गुप्त धन है। विद्या ही परम देवता है और विद्या ही सर्वत्र गौरवता को प्राप्त करवाती है। विद्या रहित पुरुष निश्चय ही पशु के समान है।" इस प्रकार विचार करके राजा ने मार्गशीर्ष मास की शुक्ल पंचमी के दिन पुष्य नक्षत्र में श्रीकंठ नामक उपाध्याय के पास पुत्र को महोत्सवपूर्वक पढ़ने के लिए भेजा। उस उपाध्याय ने भी शीघ्रतापूर्वक कुमार को समस्त कलाएँ सिखायीं। शुद्ध क्षेत्र में बीज बोने से वह तुरन्त फलदायक बनता ही है। कुमार को समग्र कलाओं में प्रवीण जानकर कलाचार्य कुमार को राजसभा में राजा के पास ले गया। समग्र कला में निपुण पुत्र को देखकर राजा अत्यन्त हर्ष को प्राप्त हुआ। आचार्य को दरिद्रता का नाश करनेवाला प्रचुर धन देकर उन्हें खुश किया। तभी वक्षःस्थल में पुष्पमाला के द्वारा शोभित उद्यानपालक ने हाथ जोड़कर राजा से विज्ञप्ति की-“हे स्वामी! चार दाँतों के द्वारा भयंकर मुखवाला, श्वेत कांतियुक्त और झरते हुए मद से मदोन्मत्त कोई गजेन्द्र कहीं से आकर हमारे कुसुमाकर उद्यान में उपद्रव कर रहा है। प्रचण्ड वायु के आघात से जो कभी टूटे नहीं, ऐसे आकाश तक ऊँचाई में फैले हुए वृक्षों को उस हाथी ने लीलामात्र में कमल की नाल की तरह तोड़ दिया है। प्रफुल्लित हुए पल्लवों से युक्त मल्ली आदि लताओं को कमलिनी की तरह क्रीड़ामात्र में मूल से ही उखाड़कर फेंक दिया है। अतः हे स्वामी! उसे पकड़ने का कोई भी उपाय शीघ्र ही करें। पृथ्वी का रक्षण करनेवाले आपके लिए इस विषय में देर करना उचित नहीं है।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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