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________________ 167/श्री दान-प्रदीप ग्राम में जाता, तो वहां पर भी दिव्य शक्ति से उन दिव्य भोग-सामग्रियों से युक्त तथा वैसी ही शय्यादि से युक्त वैसा ही महल तैयार मिलता। कहा है कि पुण्य के प्रभाव से प्राणियों को नया-नया घर, नयी-नयी प्रीति, नया-नया सुख, नयी-नयी धृति, नयी-नयी कांति और नयी-नयी प्रभुता युक्त लक्ष्मी प्राप्त होती है। फिर अनुक्रम से उस पद्माकर को चारों पत्नियों से एक-एक पुत्र प्राप्त हुआ। वे चतुर चित्तयुक्त और चार वर्गों के संबंध से मनोहर आशययुक्त थे। सभी लोगों की जिह्वा के अग्र भाग रूपी मण्डप में उस पद्माकर की कीर्ति रूपी नटी इस प्रकार नृत्य का आडम्बर करती थी-“वास्तव में इस पद्माकर ने पूर्वभव में धर्म रूपी कल्पवृक्ष की उत्तम आराधना की है, जिससे उसे दुर्लभ संपत्तियाँ भी आसानी से प्राप्त हुई हैं। यह पद्माकर तो अनेक सुकृतों की खान है। मनुष्य होने पर भी इसे देव के समान इच्छित वस्तु की सिद्धि तत्काल होती है।" एक बार निर्मल ज्ञान से शोभित श्रीमान अमर नामक सूरीश्वर अनेक मुनियों के साथ उस नगर के बाहर उद्यान में पधारे। यह जानकर पुरजन और परिवार सहित शेखर राजा व पद्माकर आदि भी परिवार सहित गुरु को वंदन करने के लिए गये। राजा आदि सभी लोगों ने गुरु को तीन प्रदक्षिणा देकर भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। गुरुदेव ने भी सभी के कल्याण का पोषण करनेवाली धर्माशीष के द्वारा सभी को संतुष्ट किया। फिर श्रेष्ठ गुरु ने राजादि को वैराग्य वृद्धि की वासना से वासित करनेवाली धर्मदेशना इस प्रकार दी "हे उत्तम बुद्धियुक्त भव्य जीवों! रत्नद्वीप की तरह दुर्लभ मनुष्य भव को प्राप्त करके पुण्य रूपी रत्न को पाने के लिए उद्यम करो। अनेक रत्न तो दूर रहे, अगर एक रत्न भी लेकर विधिपूर्वक उसकी आराधना की जाय, वह विविध प्रकार की लक्ष्मी को प्रदान करता है। इस विषय पर मैं तुमलोगों को रत्नसार कुमार का दृष्टान्त सुनाता हूं। तुम सुनो इस भरतक्षेत्र में रत्नपुर नामक नगर था। उसमें रहे हुए रत्नमय चैत्यों से तथा नररत्नों से शोभित नगर का नाम पृथ्वी पर यथार्थ रूप में प्रसिद्ध था। उस नगर में रत्नांगद नामक राजा राज्य करता था। वह बाह्य और आभ्यन्तर शत्रु व मित्र का निग्रह व अनुग्रह करने में समर्थ था। उस राजा के रत्नप्रभा नामक रानी थी। वह मात्र रत्नों के आभरणों द्वारा ही अपने शरीर का श्रृंगार करती थी। साथ ही नये-नये गुणों के द्वारा अपने जीवन का भी शृंगार करती थी। तीन वर्गों के प्राप्त होने से अपने आपको धन्य मानता हुआ वह दम्पति युगल अपने वर्षों को दिनों की तरह व्यतीत कर रहा था। एक बार उस रानी ने दावानल के समान कांतियुक्त रत्नों के समूह को स्वप्न में देखा। रोहणाचल की पृथ्वी जैसे रत्न को धारण करती है, वैसे ही रानी ने स्वप्न देखकर अपनी कोख में गर्भ को धारण किया। जिस प्रकार पूर्व दिशा सूर्य को जन्म देती है, वैसे ही नव मास पूर्ण होने पर शुभ
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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