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________________ 165/श्री दान-प्रदीप और सर्वज्ञ की आज्ञा पालने में चतुर उसकी प्रिया भी वैसे ही पुण्यकार्य करने लगी। इस प्रकार कितने ही समय के बाद अंत को प्राप्त न होनेवाले उन दोनों के विघ्नों के समूह का पुण्य के प्रभाव से सूर्य की प्रभा से अंधकार की तरह नाश हुआ। एक बार गंगा नदी के किनारे की तरह कोमल सुखशय्या पर सोयी हुई रतिसुन्दरी ने पिछली रात्रि में सरोवर की लक्ष्मी का भूषण, अपार श्रेष्ठ सुगन्ध में लुब्ध हुए भ्रमरों से व्याप्त और चार हस्तिनियों से शोभित एक मनोहर कमल स्वप्न में देखा। स्वप्न देखकर हर्षित होते हुए उसने अपने पति को स्वप्न बताया। स्वप्न सुनकर हर्षित होते हुए श्रेष्ठी ने अपनी बुद्धि से विचार करके उसे स्वप्न का फल कहा-“हे देवी! इस स्वप्न के अनुसार हमारे कुल को उद्योतित करनेवाला चार कन्याओं का स्वामी व कुल को दीपानेवाला पुत्र उत्पन्न होगा।" यह सुनकर "आपका कथन यथार्थ हो"-इस प्रकार कहकर पति के वाक्य का अनुवाद करती हुई रतिसुन्दरी ने-जैसे पृथ्वी निधान को धारण करती है, उसी प्रकार गर्भ को धारण किया। गर्भ के प्रभाव से उसे जिनपूजा व दानादि देने का दोहद उत्पन्न हुआ। उसके पति ने सच्ची प्रीति निभाते हुए उसका दोहद को पूर्ण करवाया। जैसे रोहणाचल की पृथ्वी जातीय रत्न को उत्पन्न करती है, वैसे ही अनुक्रम से समय व्यतीत होने पर शुभ समय पर उसने अद्भुत रूप सम्पदा से युक्त पुत्र का प्रसव किया। उस समय उस दम्पति को इतना अधिक आनन्द प्राप्त हुआ कि उस आनन्द के पारावार के सामने समुद्र का पानी गाय के पैरों के समान प्रतीत होने लगा। फिर राजा की आज्ञा लेकर तिलक श्रेष्ठी ने नगरजनों को आश्चर्यचकित करनेवाले पुत्रजन्म के विशाल महोत्सव का आयोजन किया। पुत्र की माता ने स्वप्न में पद्म देखा था, अतः पिता ने उसका नाम पद्माकर रखा। प्रीति की पात्र धात्रियों के द्वारा प्रयत्नपूर्वक पालन कराया जाता हुआ वह पुत्र मानो माँ-बाप के लिए मूर्त्तिमान हर्ष हो-इस प्रकार वृद्धि को प्राप्त होने लगा। गुरु की साक्षी के द्वारा कुशल पुरुषों में शिरोमणि उस पद्माकर ने शुक्लपक्ष की साक्षी से दूज के चन्द्रमा की तरह समग्र कलाएँ सीखीं। उसने कामदेव की क्रीड़ा करने के वन के समान युवावस्था को ही प्राप्त नहीं किया, बल्कि गांभीर्य, धैर्य आदि अद्भुत गुणों की संपत्ति को भी प्राप्त किया। पिता ने विराट आयोजनपूर्वक बड़े-बड़े श्रेष्ठीयों के कुलों में उत्पन्न और पवित्र लावण्यता से युक्त चार श्रेष्ठी-कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण करवाया। उसके बाद तिलक श्रेष्ठी गृहभार को पुत्र पर आरोपित करके स्वयं धर्मकार्य में संलग्न हो गया। बुद्धि रूपी धन से युक्त पुरुष यथायोग्य कार्य करने में कैसे सावधान नहीं होंगे। सम्यग् प्रकार से धर्म का आराधन करके शुभ ध्यान के द्वारा निर्मल बुद्धि से युक्त श्रेष्ठी ने समाधिपूर्वक मरण प्राप्त किया और सौधर्म देवलोक में देव के
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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