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________________ 164/श्री दान-प्रदीप फल प्रदान करते हैं। उनके उदय को अन्यथा करने में कोई प्राणी समर्थ नहीं है। फिर भी प्राणियों के किसी भी कार्य में सिद्धि का प्राप्त होना उद्यम के आधीन है। सर्व कार्यों की सिद्धि में एकमात्र धर्म ही उत्तम साधन है। अतः हमें धर्म में ही उद्यम करना चाहिए, क्योंकि अगर पुत्र की प्राप्ति के लिए अन्य कोई मिथ्यात्व का आश्रय लेंगे, तो समकित की हानि होगी। कौन बुद्धिमान पुरुष एक कील के लिए अपने पूरे महल को गिराना चाहेगा? पुत्र से तो इस भव में सुख मिले या न मिले, पर समकित से असंख्य सुख की संपत्ति अवश्य प्राप्त होती है। अतः हे स्वामी! जिनेश्वरों की आज्ञा पालने में तत्पर बनकर एक चित्त से आलस रहित बनकर धर्मकार्य में नये-नये यत्न करने चाहिए। वैसा करने पर अगर पुत्र हो जाय, तो ठीक है, अन्यथा परलोक का प्रबल भाता तो तैयार हो ही जायगा।" । इस प्रकार कानों में अमृत के समान प्रिया के वचनों को सुनकर श्रेष्ठी ने विचार किया-"अहो! धर्म के विषय में इसकी दृढ़ता किसके द्वारा प्रशंसनीय नहीं होगी? अहो! इसकी बुद्धि परिणाम में कैसी हितकारक है!" इस प्रकार विचार करके उत्तम बुद्धि से युक्त श्रेष्ठी मन में हर्षित होते हुए आश्चर्यचकित भी हुआ। उसके वचनों को मंत्र के समान इष्टसिद्धि-प्रदाता मानकर धर्मकार्य में जुट गया। क्या दुर्गा पक्षी का अनुकूल शब्द मान्य नहीं किया जाता? फिर श्रेष्ठी ने घर के समस्त कार्य भृत्यों को सौंप दिये और स्वयं शुभ भाव से विशेष प्रकार से धर्म की आराधना करने लगा। उसने विशाल मण्डपों की श्रेणि के द्वारा सुशोभित, पाप का खण्डन करनेवाला और समकितधारियों की दृष्टि को शीतलता प्रदान करनेवाला एक मनोहर जिनचैत्य करवाया। उसमें स्वर्ण व मणियों से निर्मित विविध जिनेश्वरों की आनन्द प्रदायक अनुपम प्रतिमाएँ भरवाकर स्थापित करवायीं। फिर प्रतिदिन केशर, कस्तूंरी, चन्दन, अगर, कपूर व पुष्पादि के द्वारा उन प्रतिमाओं की तीनों काल में शुद्ध भावपूर्वक पूजा करने लगा। धर्मोपदेश रूपी अमृत का पान करने में उत्सुक वह प्रतिदिन गुरु महाराज के चरण कमल में जाने लगा। वह अनेक बार बंदीजनों को धन देकर उन्हें बेड़ियों के बंधन से अपने दुष्कर्मों की तरह आजाद करवाता था। मनोहर आशय से युक्त उसने कल्याण की इच्छा से हर्षपूर्वक जिनसिद्धान्त की अनेक पुस्तके लिखवायीं। राजा की आज्ञा लेकर पूर्व के दुष्कर्मों रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करानेवाली भेरी की तरह चारों तरफ अखण्ड रीति से अमारि की उद्घोषण करवायी। मानो वह अपने धन को ब्याज पर रख रहा हो, इस प्रकार से अनंतगुणा लाभ प्राप्त करने के लिए विधि के अनुसार सुपात्रादि में दान देने लगा। वह श्रद्धापूर्वक यत्न के साथ चिन्तामणि रत्न की तरह विधिपूर्वक पौषधादि आवश्यकों की आराधना करने लगा। इस प्रकार अगण्य पुण्यकार्य वह करने लगा। उसी तरह तत्त्वज्ञाता
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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