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________________ 160 / श्री दान- प्रदीप इस प्रकार तर्क-वितर्क करते हुए उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । अपना पूर्वभव, मित्र रूपी राजा, गुरुदेव और उनके द्वारा दिया गया उपदेशादि सभी स्मृतिपटल पर तैर गया। वह खेदयुक्त होकर विचार करने लगा - "सर्वजन - हितकारी गुरु महाराज और मित्र के रूप में राजा ने परिणाम में हितकारी उपदेश मुझे अनेक प्रकार से प्रदान किया, पर आत्मा का शत्रु बने हुए मैंने स्वयं ही उसका जरा भी आदर नहीं किया। मरने की तैयारी में प्राणी वैद्य के द्वारा कथित उपचार में आदरयुक्त नहीं ही बनता। वैसे ही मनोहर मैत्री के द्वारा शोभित राजा ने मुझ पर धर्मोपकार करने के लिए ही गुरु महाराज को मेरे घर में स्थापित किया था। पर फिर भी वृष्टि से सिंचित बंजर क्षेत्र की तरह महामोह से ग्रस्त मेरे हृदय में धर्म के अंकुर तक पैदा नहीं हुए । अब विशाल कल्पवृक्ष को जड़ से उखाड़ फेंकनेवाले निर्धन मनुष्य की तरह सर्व धर्म के अंगों से रहित मैं कैसे धर्मकार्य करूं? हा! हा! क्षणिक सुखों के पीछे धर्म से विमुख हुए मूढ़ प्राणी किसलिए इस अपार भवसागर में दुःखी होते होंगे? पर मुझे तो अब पूज्यों के वचनों को स्मृतिपथ पर लाकर यथायोग्य धर्मकार्यों में प्रवृत्ति करना ही योग्य है । पर जीवहिँसा ही मेरी आजीविका होने से मुझे धर्म की प्राप्ति कैसे होगी? अतः विधिपूर्वक इस शरीर का त्याग करना ही उचित है।" इस प्रकार विचार करके कृत्य के ज्ञाता व समकित से वासित अन्तःकरणवाले उस वानर ने अत्यन्त वैराग्य युक्त होकर अनशन ग्रहण किया। अपने पूर्वभव के मित्र राजा की अनुमोदना करने में सावधान, अपने दुष्कर्मों की निन्दा करते हुए, नमस्कार महामंत्र का स्मरण करते हुए और अनित्यादि भावना का चिन्तन करते हुए उस वानर ने सात दिनों का अनशन पालकर प्रथम देवलोक में अपने अद्भुत रूप-सौंदर्य के द्वारा अन्य देवों की अवगणना करता हुआ वह श्रेष्ठ देव बना । विधिपूर्वक किया हुआ थोड़ासा भी धर्मकार्य अगणित दिव्य सम्पदा प्राप्त करवाता है । कुरुचन्द्र का जीव वहां से च्यवकर उत्तरोत्तर मनुष्यादि गतियों को प्राप्त करते हुए अनुक्रम से मोक्ष रूपी लक्ष्मी का वरण करेगा । कुरुचन्द्र ने राजा की दाक्षिण्यता के कारण मुनियों को वसतिदान प्रदान किया था, जिससे जातिस्मरण ज्ञान और देवगति आदि फल को प्राप्त किया, क्योंकि अन्यों के आग्रह से भी अगर शुद्ध बीज को उपजाऊ खेत में बोया जाय, , तो वह योग्य समय आने पर फल-सम्पदा को प्राप्त करानेवाला बनता है । तारचन्द्र राजा ने भी अपनी भक्ति के वश होकर वसतिदान किया था । उस पुण्य के द्वारा उसने परभव में अच्युत देवलोक की अद्भुत लक्ष्मी को प्राप्त किया और तीसरे भव में मोक्ष - लक्ष्मी को प्राप्त किया । अतः हे सुबुद्धियुक्त भव्यजनों! इस प्रकार राजा और मंत्री के दृष्टान्त के द्वारा कर्णों को
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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