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________________ 159/श्री दान-प्रदीप सन्मान करके जिनशासन की प्रभावना करनेवाले विशाल महोत्सवपूर्वक गुरु के पास जाकर बारहव्रत रूपी गृहस्थ धर्म को अंगीकार किया। मानो तीनों लोक के राज्य को प्राप्त किया हो-इस प्रकार सम्यग् धर्म को पाकर हर्ष से पुष्ट बनते हुए राजा ने चैत्यों में अष्टाह्निका महोत्सव करवाया। फिर मासकल्प पूर्ण होने के बाद गुरुदेव वहां से अन्यत्र विहार कर गये मुनियों की व पक्षी की एक स्थान पर स्थिरता नहीं होती। राजा ने अपने सम्पूर्ण देश में समग्र कल्याण रूपी लता को नव पल्लवित करने में नवीन मेघ की श्रेणि के समान अमारि का प्रवर्तन किया। पृथ्वी रूपी स्त्री के वक्षस्थल को अलंकृत करने में मोतियों के हार की तरह जिनचैत्य बनवाये। लोगों के नेत्रों को आनन्द प्रदान करनेवाली जिनेश्वरों की मणिमय व सुवर्णमय अनेक अनुपम प्रतिमाएँ भरवाकर उनकी स्थापना करवायी। शत्रुजयादि तीर्थों में अत्यन्त महोत्सवपूर्वक और 'दो प्रकार से शत्रु को जीतनेवाली पवित्र यात्राएँ कीं। वह राजा निरन्तर प्रत्युपकार की इच्छा के बिना विधियुक्त दान करता था। सत्पुरुषों के लिए कन्या की तरह लक्ष्मी का दान करना ही उचित है। वह राजा चतुर्दशी आदि पर्व-तिथियों में कर्म रूपी व्याधियों का हनन करने के लिए औषध की तरह विधिपूर्वक पौषध करता था। इस प्रकार अगणित पुण्यकर्मों का विस्तार करके अर्हत-मत की प्रभावना करते हुए उस राजा ने चिरकाल तक राज्य का भोग किया। फिर अवसर देखकर अपने पुत्र को राज्यभार सौंपकर समता रूपी अमृत के द्वारा व्याप्त होकर उस राजा ने चार प्रकार के अशनादि का त्याग किया। इन्द्रियों को वश में करके, 'चार शरण का आश्रय लेकर, निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होते शुभानुबंधी ध्यान रूपी जल के द्वारा अंतरात्मा को शुद्ध बनाया। अंत में नमस्कार महामंत्र का जाप करने में तत्पर राजा तारचन्द्र मृत्यु प्राप्त करके शय्यादान से उत्पन्न पूण्य समह के द्वारा दीप्त, दैदीप्यमान मणियों की कांति के समूह से चारों तरफ से द्योतित, दिव्य समृद्धि से व्याप्त और सर्व प्रकार की सुखलक्ष्मी के विलास करने के स्थान रूप विमान को प्राप्त करके बारहवें देवलोक में इन्द्र के समान वैभव से युक्त देव के रूप में उत्पन्न हुआ। वहां से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में उत्तम कुल को प्राप्त करके चारित्र लेकर तपस्या के द्वारा सर्व कर्मों का क्षय करके मोक्ष को प्राप्त करेगा। उधर कुरुचन्द्र मंत्री धर्म से विमुख था। निरन्तर विषयों की आकांक्षा के द्वारा मलिन बन रहा था। अतः मरकर किसी वन में वानर बना। जो जिनधर्म से रहित होता है, वह दुर्गति को ही प्राप्त करता है। एक बार उसने पर्वत के पास किसी सार्थ के साथ जाते हुए मुनीश्वरों को देखा। उन्हें देखकर वह विचार करने लगा-“ऐसे साधुओं को मैंने पहले भी कहीं देखा 1. बाह्य और आभ्यन्तर। 2. अरिहन्त, सिद्ध, साधु और जिनधर्म ।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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