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________________ 144/श्री दान-प्रदीप उस कुशलता की चरम सीमा थी। राजा को भी सभी रानियों के मध्य यह कमला रानी ही अति प्रिय थी। क्या चन्द्र को सर्व ताराओं के मध्य सारभूत रोहिणी अधिक प्रिय नहीं होती? उन दोनों के कला की निधि के समान तारचन्द्र नामक पुत्र हुआ। वह पुत्र अपने कुल रूपी आकाश को अपने तेज द्वारा शोभित बनाता था। वह बुधेश्वर केवल शरीर से ही वृद्धि को प्राप्त नहीं हुआ, बल्कि विवेक, विनय, औदार्य व गांभीर्यादि गुणों के द्वारा भी वृद्धि को प्राप्त हो रहा था। जैसे दैदीप्यमान कांतियुक्त मणियाँ स्वर्णालंकार को शोभित करती हैं, वैसे ही वे गुण उसकी सौभाग्य-सम्पदा को शोभित बनाते थे। राजा के अन्य भी अनेक कुमार थे, पर वही पुत्र राजा को अधिक प्रिय था, क्योंकि सर्व मणियों के मध्य चिंतामणि रत्न ही पूज्यता को प्राप्त होता है। विद्वान व्यक्ति उसके चक्र, धनुष, अंकुशादि शारीरिक लक्षणों को देखकर कहते थे-"इस कुमार को भविष्य में महान वैभव प्राप्त होगा।" उसके ग्रहों की उच्चतादि बल देखकर ज्योतिषी कहते थे-“इस कुमार का जन्म-लग्न राज्य की प्राप्ति करानेवाला है।" जैसे-जैसे कुमार की गुणराशि वृद्धि को प्राप्त होने लगी, वैसे-वैसे उन गुणों की स्पर्धा के कारण लोगों की प्रीति भी उस पर वृद्धि को प्राप्त होने लगी। विधाता ने उसे सर्व उपकारी परमाणुओं के द्वारा ही बनाया हो-ऐसा प्रतीत होता था, अन्यथा कुमार की एकमात्र परोपकार के कार्यों में ही प्रवृत्ति क्यों होती? उस कुमार पर अकृत्रिम प्रीति को धारण करनेवाला और निरन्तर विकस्वर बुद्धि के द्वारा बृहस्पति को भी पराजित करनेवाला कुरुचन्द्र नामक मित्र था, जो कि मंत्रीपुत्र था। हमेशा साथ ही आहार-विहारादि करने से उन दोनों की प्रीति दिवस के पिछले प्रहर की छाया की तरह वृद्धि को ही प्राप्त होती थी। जिस तरह जगत को आनंद प्राप्त करानेवाला चन्द्र कुमुद को विकस्वर करता है, उसी तरह राजपुत्र भी कुरुचन्द्र को विशेष आनंद प्रदान करता था। उसकी लोकप्रियता, सौभाग्य, तेजस्विता, यशस्विता आदि को देखकर लोग ऐसा मानते थे कि राज्य इसी को मिलेगा। सर्व गुणों के निवास रूप उस कुमार पर उसकी कोई पापी विमाता सूर्य पर धुवड़ की तरह ईष्यावश द्वेष को धारण करती थी। दुष्टबुद्धि से युक्त वह अपने पुत्र को राज्यलक्ष्मी दिलाने की इच्छा से अपने नरकगमन के उपाय रूप तारचन्द्र कुमार के मरण का उपाय सोचने लगी। एक बार कपट-रचना में पण्डिता उसने अवसर पाकर कुमार के भोजन में दुष्ट मंत्र से
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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