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________________ 143/ श्री दान-प्रदीप तपस्वियों के ज्ञान व चारित्र को योग वसति के आधार पर ही है। शय्यादान के प्रभाव से धर्म के सन्मुख होने रूप गुण को प्राप्त करके चोरों का नायक वंकचूल भी स्वर्ग में गया। जो मनुष्य यतियों को शय्या का दान देता है, वह संसार से शीघ्र ही पार उतरता है। अतः आगमों में शय्या के दातार को शय्यांतर कहा गया है। पापसम्पत्ति की निधानरूप कोशा नामक वेश्या ने स्थूलिभद्र मुनि को वसतिदान देने से आभ्यन्तर प्रकाश को प्राप्त किया था। साधु को उपाश्रय का दान करने से अवंतीसुकुमार ने संवेग का संग प्राप्त किया था, जिससे उसे क्षणभर में ही दिव्य ऋद्धि प्राप्त हुई। जो पुरुष शुद्ध भाव से संयमी को अपने घर में स्थान प्रदान करता है, उसने अपने घर में निश्चय ही जंगम कल्पवृक्ष बोया है-ऐसा जानना चाहिए। जो पुरुष चढ़ते परिणामों के द्वारा साधुओं को शय्यादान करता है, वह तारचन्द्र की तरह शीघ्र ही अक्षय सम्पत्ति को प्राप्त करता है। जो पुरुष दाक्षिण्यता से भी यतियों को वसतिदान करता है, उस भाग्यवंत पुरुष का भविष्यकाल शुभ होता है और ताराचंद्र के मित्र कुरुचन्द्र की तरह 'अविलम्ब अक्षय सम्पत्ति को प्राप्त करता है। उसकी कथा इस प्रकार है प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान के सौ पुत्र थे। उनमें एक श्रेष्ठ गुणों से युक्त कुणाल नामक पुत्र था। उसने ललित लक्ष्मी के स्थान रूपी एक देश की स्थापना की थी। वह देश इस भरतक्षेत्र में कुणाल नाम से प्रसिद्ध था। उसी देश में कल्याणकारक एक श्रावस्ती नामक प्रसिद्ध पुरी थी। मानो आकाश में निराधार रही हुई अमरावती नगरी गिर जाने के भय से पृथ्वी पर आकर रह रही हो-इस प्रकार से वह नगरी शोभित होती थी। तीर्थ रूपी वह नगरी किस मनस्वी पुरुष के नमने योग्य नहीं थी? क्योंकि वह नगरी श्रीसंभवनाथ स्वामी के जन्म द्वारा पावन की गयी थी। कंगूरों के बहाने से मानो हाथ के द्वारा दुर्नीति को रोक रहा हो-इस प्रकार से निरन्तर निर्भय उस नगरी के चारों तरफ फिरता हुआ प्राकार (किला) रहा हुआ था। उस नगरी में अत्यन्त तेज का स्थान आदिवराह नामक राजा राज्य करता था। उसने चिरकाल तक पृथ्वी को राजायुक्त बनाया था। पृथ्वी के अपार भार को धारण करने में धुरन्धर उस महा- तेजस्वी राजा ने अपना नाम अर्थ से निष्फल नहीं किया था। भागती हुई शत्रु-स्त्रियों के टूटते हुए हारों से चारों तरफ बिखरते हुए मोती राजा की यश रूपी लता के अंकुरों की तरह शोभित होते थे। उस राजा के कमल के समान मुखवाली कमला नामक पट्टरानी थी। उसकी निर्मल शीलकला दूज के चन्द्रमा की कला को जीतती थी। स्वर्ग की स्त्रियों को बनाने से विधाता को जो चतुरता और कुशलता प्राप्त हुई थी, सभी स्त्रियों के मध्य शिरोमणि रूप यह रानी 1. 'ना विलंबेन' का अर्थ 'अविलम्बेन' कथा की संगति के हिसाब से प्रतीत होता है। 2 आदिवराह का अवतार लेकर ईश्वर ने जल में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार किया था।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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