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________________ 127/श्री दान-प्रदीप कल्पलता का वपन किया है, उसे स्वर्गादि फल-सम्पदा की प्राप्ति होती है। दया ही सौभाग्य, आरोग्य, चिरायुष्य और साम्राज्यादि सुखलक्ष्मी की खान है और अकृपा (दया-रहितता) दुःखों की खान है। हे राजन्! तुमने भी उस दया के प्रभाव से ही इस साम्राज्य को पाया है। अतः इस जन्म में अधिक से अधिक दया की आराधना करो।" इस अवसर पर राजा ने सूरि से पूछा-"हे पूज्य! पूर्वभव में मैंने ऐसा कौनसा कर्म किया था, जिससे इस भव में मुझे आपत्ति के साथ संपत्ति प्राप्त हुई है?" यह सुनकर निर्मल ज्ञान के साथ तीन जगत के भावों को जाननेवाले गुरुदेव ने उसे यथार्थ प्रकार से पूर्वभव का वृत्तान्त बताया। फिर कहा-“हे राजा! पूर्वजन्म में तुमने जो अतुल्य दयाव्रत का पालन किया था, उस पुण्य के प्रभाव से ही तुम्हे यह विशाल साम्राज्य बिना किसी प्रयत्न के इस भव में प्राप्त हुआ है। पूर्वभव में तुमने जितनी बार शशक पर मुद्गर फेंका था, उतनी बार ही तुम्हे इस भव में विपत्ति का सामना करना पड़ा। उधर मानभंग राजा प्राणिघात के पाप के योग से मरकर नरक में उत्पन्न हुआ है। वहां से निकलकर वह चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण करेगा। हे राजन्! संसार की सम्पदा अभयदान रूपी प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष के पुष्प रूप है और मोक्ष रूपी लक्ष्मी उसका फल है।" इस प्रकार गुरुदेव की वाणी का श्रवण करके राजा को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसने हर्षपूर्वक जीवन-पर्यन्त जीवदया व्रत को अंगीकार किया। उसके बाद राजा धर्मगुरु को वंदन करके अपने महल में लौट आया। फिर पाप रूपी हाथी को बांधने के समान स्तम्भ रूप अमारि को अपने राज्य में प्रवर्तित करवाया। उसने जिनेश्वर के शासन की परम उन्नति का विस्तार करके चिरकाल तक राज्य का भोग किया। विशुद्ध धर्म का आराधन करके अनुक्रम से वह राजा अभयसिंह स्वर्ग में गया और क्रमपूर्वक अष्ट कर्मों का क्षय करके मुक्ति रूपी लक्ष्मी का भोग करने लगा। अतः हे पल्लीपति! तुम भी प्राणीवध का त्याग करके दयाव्रत को अंगीकार करो, जिससे तुम्हें भी अभयसिंह के समान संपदा की प्राप्ति हो।" इस प्रकार शंख के उपदेश की वाणी रूपी दीपिका के द्वारा पल्लीपति मेघनाद की आत्मा प्रकाशित हुई। उसने आनंदपूर्वक दयाव्रत को अंगीकार किया। इससे शंख अत्यन्त हर्षित हुआ। पल्लीपति को धर्म में दृढ़ करने के लिए वह ज्ञानवान शंख कितने ही समय तक वहीं रहा। उसके बाद उसे अपने घर जाने की इच्छा हुई। तब पल्लीपति ने उसे स्वर्णादि देकर उसका सत्कार किया, क्योंकि शंख सत्पुरुषों के समूह के मध्य चक्रवर्ती के समान था। पल्लीपति काफी दूर तक उसे भक्तिपूर्वक छोड़ने के लिए आया। आगे जाने के लिए सार्थ मिल जाने पर शंख अपने घर की तरफ जाने की उत्कण्ठा से आगे बढ़ा। सार्थ के साथ वह
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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