SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 126/श्री दान-प्रदीप हुई कन्या के पास जाकर सो गया। पापियों का चित्त अस्थिर ही होता है। फिर राजा ने स्वप्न में अभयसिंह द्वारा हरण की जाती हुई अपनी कन्या को देखा। प्रायः किये हुए विचार ही स्वप्न में दिखायी देने लगते हैं। फिर "अरे दुष्ट चित्तयुक्त! मेरी पुत्री का हरण करके तूं कहां जा रहा है?" ऐसा बोलते हुए राजा हाथ में खड्ग लेकर उसके पीछे दौड़ा। क्रोधावेश में दौड़ता हुआ राजा मेडी पर से नीचे गिरा और मानो प्राण भी उससे भयभीत हो गये हों-इस प्रकार से उसका साथ प्राणों ने भी छोड़ दिया। वह मरकर नरक में गया। प्रातःकाल उसे मरा हुआ देखकर सभी लोग आनंद को प्राप्त हुए। ऐसे दुष्ट मनुष्य का मरण किसके लिए हर्ष-प्रदाता नहीं बनता? फिर मंत्री आदि तथा सभी पुरजन विचार करने लगे-"अब अब हमारा न्यायनिष्ठ राजा कौन बन सकता है?" तभी आकाश में रही हुई देवी ने कहा-“हे लोगों! जिनकी कीर्त्ति प्रसिद्ध है, ऐसे वीरसेन राजा का पुत्र अभयसिंह है। उसे राज्य सौंप दो।" ऐसा कहने के बाद स्वयं के वनगमन, मृत्यूपरान्त व्यन्तरी बनना, पुत्र का स्वयं रक्षण करना आदि सर्व हकीकत कहकर देवी अदृश्य हो गयी। वह सब सुनकर सभी मन में अत्यन्त प्रसन्न हुए। फिर वीरसेन राजा के पुत्र अभयसिंह का विशाल उत्सवपूर्वक राज्याभिषेक किया। सर्व दिशाएँ प्रसन्नता को प्राप्त हुई। आकाश में देव-दुन्दुभि का नाद होने लगा। आकाश से प्रत्यक्ष रत्न-सुवर्णादि की वृष्टि हुई। फिर पवित्र लावण्यता से युक्त कुमारी के साथ कुमार का पाणिग्रहण हुआ। पुरुषोत्तम के बिना लक्ष्मी के साथ विवाह कौन करे? श्रेष्ठ बुद्धि से युक्त राजा अभयसिंह ने जीवन-भर प्रियमित्र श्रेष्ठी पर पितृभक्ति रखी। स्वर्ग में इन्द्र की तरह वह पृथ्वी पर न्याय के द्वारा राज्य पालन करने लगा। एक बार उद्यानपालक ने प्रातःकाल के समय आकर राजा से विज्ञप्ति की-“हे देव! आज हमारे उद्यान में ज्ञानसूर नामक गुरुदेव पधारे हैं।" यह सुनकर राजा ने हर्षपूर्वक उसे प्रीतिदान देकर संतुष्ट किया। फिर अत्यन्त आनंदपूर्वक परिवार सहित उद्यान में जाकर गुरुदेव को वंदन किया। सूरि ने भी कल्याण का पोषण करनेवाली धर्मलाभ रूपी आशीष द्वारा और पुण्य रूपी उद्यान को विकसित करने में जल के सिंचन के समान धर्मदेशना द्वारा राजा को प्रसन्न किया । धर्मदेशना देते हुए गुरुदेव ने फरमाया-“इस असार संसार में सारभूत एकमात्र धर्म ही है-ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है। वह धर्म पिता की तरह सर्वत्र मनोवांछित पदार्थों को प्रदान करता है। मनुष्यों को उस-उस प्रकार की अनुपम कल्याण सम्पदा देने में धर्म ही साक्षीभूत रूप में समर्थ है। उस धर्म को जिनेश्वरों ने दानादि भेद के द्वारा अनेक प्रकार का कहा है। उन अनेक प्रकार के धर्मों के मध्य दयाधर्म ही उत्कृष्ट जीवन रूप है। जिसने अपने हृदय की भूमि पर कृपा (दया) रूपी
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy