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________________ 121/श्री दान-प्रदीप यह सुनकर "आपने मुझ पर महान कृपा की" कहकर अभयसिंह ने माता को नमस्कार किया और हर्षपूर्वक उसके पास से मात्र बोलने से ही सिद्ध होनेवाली वह विद्या ग्रहण की। "तूं जब भी मुझे याद करेगा, मैं तेरी सहायता करूंगी"-ऐसा कहकर देवी बिजली की चमक के समान उड़कर अपने स्थान पर लौट गयी। मानभंग राजा को अपना शत्रु जानते हुए भी भयरहित पराक्रमी अभयसिंह कुमार स्वेच्छापूर्वक उद्यानादि में क्रीड़ा करते हुए समय व्यतीत करने लगा। मानभंग राजा को मांस खाने का कुव्यसन था। स्वादिष्ट अन्न को वह घास के समान निःसार समझता था। एक बार रसोइये ने मांस की रसोई तैयार की, पर उसके प्रमाद के कारण वह रसोई कोई बिलाव खा गया, क्योंकि हिंसक प्राणियों की वैसी ही खुराक होती है। यह देखकर रसोइया अपने स्वामी के क्रूर स्वभाव के कारण अत्यन्त भयभीत हुआ। समय न होने के कारण पुनः मांस मिलना कठिन था। अब मैं कहां से मांस लाऊँ-इस विचार से मूढ़ बन गया। इधर-उधर चारों तरफ देखते हुए उसे एक बालक दिखायी दिया। उसकी निर्दयतापूर्वक हत्या करके उसके मांस से रसोई पकाकर शीघ्र ही राजा के पास ले गया। उसका अपूर्व स्वाद देखकर राजा ने पूछा-“हे सूप! यह अति स्वादिष्ट मांस किसका है? बता।" तब उसने राजा से सत्य हकीकत निवेदन की। यह सुनकर वैसा मांस खाने की लोलुपता के कारण राजा ने उस सूप से कहा-"अब से हमेशा एक बालक का मांस पकाकर मेरा भोजन बनाना।" इस प्रकार राजाज्ञा से वह निर्दयी सूप वैसा ही करने लगा। राजा पापी हो, तो उसके सेवक भी वैसे ही होते हैं। राजा के इस प्रकार के दुष्ट आचरण को देखकर जनता कंजूस मानवों द्वारा धन छिपाने के समान अपने बालकों को छिपाने लगी और विचार करने लगी कि ऐसे कुकर्म को करने में आसक्त इस राजा का कब विनाश होगा? एक बार लुब्धबुद्धि से युक्त राजा ने विचार किया कि कभी कोई बलात्कार के द्वारा मेरे राज्य को छीन तो नहीं लेगा? पापी मनुष्य प्रायः करके शंकालू होते हैं। उस समय कल्पान्त काल की वायु के समान बलवान तीक्ष्ण वायु बहने लगी। उस वायु से वृक्ष जड़ सहित उखड़ने लगे। उस वायु के द्वारा उठी हुई धूल से आकाश मण्डल परिव्याप्त हो गया और सूर्य राहू से ग्रस्त होने के समान अदृश्य हो गया। मानो मानभंग राजा का मूर्त्तिमान अपार पापसमूह हो, इस प्रकार से अंधकार समूह के द्वारा सर्व दिशाएँ श्यामता को प्राप्त हुई। अब इस दुष्ट बुद्धिवाले राजा का मरण होगा-इस प्रकार का अनुमान लगाकर हर्षित होते हुए
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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