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________________ 120/श्री दान-प्रदीप हे विधाता! ऐसे दुःख देकर भी तुझे संतोष नहीं मिला, जिससे कि प्राणों से प्रिय शील का भी त्याग करवाने के लिए तूं तैयार बैठा है। ठीक है, बहुत अच्छा है, पर तूं इतना जान ले कि अभी तक तो तूं मेरे सर्वस्व का हरण करने में समर्थ बना है। पर मेरे शील का नाश करने में तेरी कितनी कुशलता है-यह अब तुझे पता लगेगा। ___ हे धृष्ट निर्लज्ज-चित्त! तूं भी क्या वज्र का बना हुआ है कि ऐसा दुःख देखने के बाद भी तूं फटा नहीं है?" इस प्रकार अत्यन्त पीड़ित उसके हृदय में मानो अद्भुत दुःख का आवेश उत्पन्न हुआ हो और उसके दुःख को देखकर उसके भयभीत प्राण मानो हृदय को चीरकर बाहर निकल गये अर्थात् वह मरण को प्राप्त होकर तत्काल शील के प्रभाव से व्यन्तरी बन गयी। निर्मल शील किसकी समृद्धि का साक्षीभूत नहीं होता? अवधिज्ञान के द्वारा पूर्वभव को देखते हुए उसने देखा कि उसका पुत्र वन में वायु से गिरे हुए जामुनों को खा रहा है। तब उसने गाय के रूप की विकुर्वणा करके प्रेमवश अपने पुत्र को दूध पिलाया। सभी उपद्रवों से उसकी रक्षा की। दूसरे दिन बालक के पुण्य से आकर्षित होकर श्वेताम्बिका नगरी का ही कोई प्रियमित्र नामक सार्थवाह वन में आया। उसने एक वृक्ष के नीचे शुभ लक्षणों से युक्त उस बालक को देखा। वृक्ष की छाया को स्थिर देखकर उसे अद्भुत भाग्यवंत माना। उसे रत्न की तरह सुरक्षित व गोपनीय तरीके से लाकर अपनी निःसन्तान प्रिया को सौंप दिया। "गुप्त गर्भ से युक्त मेरी प्रिया को आज ही पुत्र उत्पन्न हुआ है"-इस प्रकार लोक में प्रसिद्ध करके उसका जन्मोत्सव किया। फिर उसने विचार किया कि मैंने इसे निर्जन वन में सिंह की तरह निर्भय देखा था। अतः उसने उस बालक का नाम अभयसिंह रखा। फिर सार्थवाह और उसकी स्त्री बालक का पुत्र की तरह लालन-पालन करने लगे। प्राणियों के शुभ कर्म सर्वत्र स्वजनपने को उत्पन्न करते हैं। अभयसिंह कुमार ने समय आने पर समग्र सुन्दर कलाएँ सीखीं। अनुक्रम से युवतियों के मन की क्रीड़ा करने के स्थान रूप यौवन को प्राप्त हुआ। एक बार सुखशय्या पर सोये हुए कुमार के पास मध्यरात्रि के समय उसकी माता देवी ने आकर प्रेम के पूर को विकसित करनेवाली वाणी के द्वारा कहा "हे पुत्र! इस नगरी में पहले वीरसेन राजा राज्य करता था। मैं उसकी वप्रा नामक रानी थी। मेरी कुक्षि से उत्पन्न हुआ तूं मेरा ही पुत्र है। तेरे पिता को इस मानभंग राजा ने युद्ध में मार डाला और मैं वन में भाग गयी। वहां मरकर मैं देवी बनी हूं। मानभंग राजा के शत्रु का पुत्र तूं है-यह जानकर वह राजा तुझ पर द्वेषभाव धारण करेगा। अतः अपनी रक्षा के लिए अदृश्य करनेवाली यह विद्या तूं ग्रहण कर।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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