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________________ 96 / श्री दान- प्रदीप जो जिह्वा - छेद का प्रण किया है, वह अयोग्य है । अतः अब भी यह वाद-विवाद छोड़ दे। इससे तुझे अनर्थ ही प्राप्त होगा ।" तब पर्वतक ने कहा - "हे माता! मैंने तो अब प्रतिज्ञा कर ली है। अब तो मेरा मान • खण्डित हो जायगा । अतः प्राणान्त तक मैं यह वाद छोड़नेवाला नहीं हूं।" पुत्र का इस प्रकार का निश्चय जानकर उसके कष्ट का नाश करने के लिए उसकी माता राजा वसु से एकान्त में मिलने गयी । सन्तान के लिए इन्सान क्या - क्या नहीं करता ? राजा भी गुरु-पत्नी को देखकर प्रसन्न हुआ और उठकर उन्हें आसन प्रदान करके माता की तरह सम्मान देते हुए गौरवपूर्वक कहा - "हे माता! आज आपको यहां देखकर मुझे क्षीरकदम्बक उपाध्याय के दर्शन करने जितना आनंद प्राप्त हुआ है। आप आदेश करें कि मैं आपके किस काम आ सकता हूं? आप दुःखी क्यों दिखायी पड़ रही हैं?" तब पर्वतक की माता ने कहा - "हे राजन् ! मुझे पुत्र की भिक्षा प्रदान करें । पुत्र के बिना अगणित सुवर्णादि से मेरा क्या प्रयोजन ?” यह सुनकर राजा ने कहा - "हे माता! आप यह क्या कह रही हैं? गुरुपुत्र पर्वतक मेरे लिए गुरु के समान ही पूज्य और पालन करने लायक है। आज अकाल में भयंकर क्रोधवाले यमराज ने किसके ऊपर कटाक्ष किया है? मेरे भाई का द्रोही कौन है ? हे माता! कहो। इतनी आतुर क्यों दिखायी दे रही हो?” यह सुनकर माता ने नारद व अपने पुत्र का विवाद, जिह्वा-छेद की प्रतिज्ञा और दोनों द्वारा स्वीकार की गयी राजा वसु की साक्षी - आदि सर्व वृत्तान्त बताया। फिर प्रार्थना की- "हे राजन! तुम्हारे भाई को जीवनदान देने के लिए अज का अर्थ बकरा ही मानना । गुरुपुत्र का रक्षण करने के कारण तुम्हें असत्य वचन का पाप नही लगेगा । सत्पुरुष प्राणियों के जीवन की रक्षा के लिए असत्य भी बोलते हैं । तो गुरु रूप में अंगीकार किये गये गुरुपुत्र के रक्षण के लिए असत्य भी बोलना पड़े, तो कैसा आश्चर्य?" यह सब सुनकर राजा वसु ने कहा - "हे माता ! जन्म के प्रारम्भ से पाला हुआ सत्यव्रत मुझे मेरे जीवन से भी ज्यादा प्रिय है । उसका मैं आज कैसे लोप करूं? पापभीरु मनुष्य को अन्य भी असत्य वचन नहीं बोलने चाहिए, तो फिर गुरुकथित वेदार्थ की झूठी साक्षी मैं कैसे दे सकता हूं? यह तो बहुत बड़ी बात है ।" यह सुनकर माता ने कहा - "तेरी जैसी मर्जी । चाहे तो तूं अपने भाई की रक्षा कर और चाहे तो सत्यव्रत के कदाग्रह का पालन कर ।" इस प्रकार उसने क्रोधपूर्वक कहा, तो परवश होकर राजा ने उसके वचनों को अंगीकार
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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