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________________ 90/श्री दान-प्रदीप उसके बाद राजा ने कुणाल को समृद्धियुक्त दूसरा नगर भेंट किया और विमाता के पुत्र को उज्जयिनी नगरी प्रदान की। कुमार के सचिवों ने किसी तरह से पता लगा लिया कि उसे अंधा बनाने में कुणाल की विमाता का ही हाथ है, क्योंकि विष्ठा और दुष्ट चेष्टा लम्बे समय के बाद भी दुर्गंध दिये बिना नहीं रहती अर्थात् गुप्त नहीं रहती। काफी समय बाद कुणाल को शरदश्री नामक पत्नी के द्वारा मनोहर लक्षणों से युक्त व कुल को शोभित करनेवाला पुत्र उत्पन्न हुआ। बधाई देनेवाली दासी को कुणाल ने अपार प्रीतिदान दिया। फिर पुत्रजन्म का विशाल महोत्सव किया। फिर विमाता के मनोरथ को व्यर्थ करने के लिए कुणाल अपना राज्य पुनः प्राप्त करने की इच्छा से पाटलिपुत्र नगर में आया। वहां अपूर्व संगीतकला के द्वारा पौरजनों को मुग्ध करते हुए राजपथ पर स्वेच्छा से विचरण करने लगा। वाणी की मधुरता के द्वारा तुम्बरु नामक देव को भी पराजित करनेवाला कुणाल जैसे-जैसे गायन गाता, मृगों की तरह वश में किये हुए लोग उसके पीछे चलने लगते। उसकी प्रशंसा सुनकर राजा ने उसे राजसभा में बुलाया। नेत्ररहित होने के कारण उसे पर्दे में बिठाकर उसे गाने की आज्ञा प्रदान की। योग्य स्थान पर किये हुए मन्द, मध्य और उच्च षड्जादि स्वरों के द्वारा उसने संगीत बजाया। उसे सुनकर सभासद चित्रलिखित रह गये। उसके अद्भुत संगीत से आश्चर्यचकित हुए राजा ने उससे कहा-“हे गायक! वरदान माँगो।" उसने तत्काल कहा-“चन्द्रगुप्त का प्रपौत्र, बिन्दुसार का पौत्र अशोकश्री राजा को अंधा पुत्र काकिणी माँगता है।" यह सुनकर उसे अपने पुत्र के रूप में पहचानकर राजा ने हर्ष और शोकमिश्रित आँसुओं के साथ तुरन्त परदा हटाकर उसे खींचकर गले लगा लिया और कहा-“हे वत्स! तुमने काकिणी जैसी तुच्छ वस्तु क्यों माँगी?" यह सुनकर कुणाल चुप रहा। तब बुद्धिमान मंत्री ने कहा-'हे राजन! राजकुमारों की काकिणी राज्य को कहा जाता है।" तब राजा ने कहा-“हे वत्स! इस अवस्था में तुझे राज्य कैसे दिया जा सकता है?" कुणाल ने कहा-“हे पिताश्री! मेरे पुत्र हुआ है। उसका राज्याभिषेक करें। मैं आपको पौत्रजन्म की बधाई देता हूं।" राजा ने उससे पूछा-"तुम्हें पुत्र कब हुआ?" हाथ जोड़कर कुणाल ने कहा-“सम्प्रति अर्थात् अभी ही।" यह जानकर राजा ने अपने पौत्र को तुरन्त वहां बुलवाया। उसका सम्प्रति नाम रखकर
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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