SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 89/श्री दान-प्रदीप ने राजा को बताया कि कुणाल आठ वर्ष का हो गया है। यह जानकर राजा ने विचार किया-"अब कुमार अभ्यास करने की योग्य वय को प्राप्त हो गया है। अतः अब उसे विद्याभ्यास करवाना चाहिए, क्योंकि कुमारों को अगर बाल्यावस्था से कलाओं का अभ्यास करवाया जाय, तो वे वंश के अलंकार रूप सिद्ध होते हैं।" इस प्रकार विचार करके राजा ने स्वयं लेख लिखते हुए सुखपूर्वक समझा जा सके इस प्रकार प्राकृत भाषा में लिख-"अधीयउ कुमारं" अर्थात् कुमार को पढ़ाया जाय। लेख पूर्ण करके उसे मुद्रित किये बिना ही राजा देहचिन्ता निवारण के लिए चला गया। उस समय कुमार की एक विमाता वहां आयी। उसने लेख को पढ़ लिया। उसने विचार किया-"जब तक सर्व गुणों का आश्रयरूप यह कुमार पूर्णांगी है, तब तक मेरे पुत्र को राज्य कैसे मिल सकता है?" ऐसा विचार करके औत्पातिक बुद्धि से उस रानी ने अ पर एक बिंदु लगाकर 'अधीयउ' की जगह 'अंधीयउ' कर दिया। मलिन हृदययुक्त व्यक्तियों का मन दुष्ट बुद्धि से युक्त होता उसके बाद राजा देहचिंता से निपटकर आया और उसने प्रमादवश पत्र को पुनः पढ़े बिना ही मुद्रित कर दिया व तुरन्त ही उज्जयिनी के लिए रवाना कर दिया। पिताश्री के हाथ से लिखे हुए अक्षरों को देखकर कुमार हर्षित हुआ। दोनों हाथों से उस पत्र को ग्रहण करके अपने मस्तक पर लगाया। फिर अपने पास रहे हुए सचिव को वह पत्र पढ़ने के लिए दिया। सचिव उस पत्र को पढ़कर अत्यन्त खिन्न हुआ। उसके नेत्र अश्रुओं से व्याप्त हो गये। उस लेख के अर्थ को कहने में वह समर्थ न हो सका। तब कुमार ने उसके हाथ से जबरन वह लेख ले लिया और स्वयं उसे पढ़ने लगा। पढ़ते हुए 'अंधीयउ' शब्द को देखकर उसने मन में विचार किया-"अवश्य मैंने कोई अविनय किया होगा, जिससे पिताश्री ने ऐसा आदेश दिया है। इस मौर्यवंश में पहले किसी भी व्यक्ति ने गुरुजनों की आज्ञा का लोप नहीं किया। अतः चाहे कुछ भी हो, मुझे इस आज्ञा का लोप नहीं करना चाहिए।" ऐसा विचार करके उस धैर्यशाली कुमार ने सभी के मना करने के बावजूद भी तपी हुई लौह की सलाइयों द्वारा अपने दोनों नेत्र बाहर निकाल दिये। जब इस वृत्तान्त का राजा अशोकश्री को पता चला, तो वे अत्यन्त शोक-विह्वल हो गये। विचार करने लगे-"मेरा दैव ही मुझसे रूठ गया है। मैं हीनभागी हूं, जिसके प्रमाद के कारण आज मेरे प्राणप्रिय पुत्र की यह दुर्दशा हुई है। मैं पहले कुमार को युवराज पद देकर फिर साम्राज्य प्रदान करूंगा। मेरा यह मनोरथ मन में ही रह गया।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy