SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दानशासनम् उसका किया हुआ, कराया हुआ सर्व कार्य नष्ट होता हैं, जिस प्रकार कोई किसान अपने आश्रित जनोंको कष्ट देकर यदि खेदसे फल प्राप्त · करना चाहता है तो उसे फल मिलना कठिन है उसी प्रकार अपने आश्रित जनोंके प्रति दया न रखनेवाले व्यक्तिको किसीभी कार्य में सफलता नहीं मिलती, इस लिये अपने आश्रित मनुष्योंको धन इत्यादिसे रक्षा करनी चाहिये ॥ २५ ॥ जीवपालनसे होनेवाले लाभ. 'ये ये पूर्वनृपालदत्तमखिलं ग्रामादिधर्मादिकं । पांत्येवं भगिनीमिवात्मतनुजामेवात्मदत्तं यथा ॥ .. ते भूपाश्च जनाः सुतद्रविणगोधान्यादिसंपत्तयो। अधिव्याधिभिरंतरेण सुखिनो जीवति मूत्वा चिरं ॥२६॥ अर्थ- जो राजा व अन्यव्यक्ति जिस प्रकार धनादि देकर अपने पुत्रीके समान बहिनकी भी रक्षा करते हैं ठीक उसी प्रकार अपने पूर्व. जोंके द्वारा दिये गये ग्राम खेत इत्यादिके धर्मको बराबर पालन करते हैं उन राजावोंको अथवा उन व्यक्तियोंको धन धान्य स्त्री पुत्र इत्यादि योंकी समृद्धि होते हुए आधिव्याधिसे रहित सुखी शरीरको प्राप्त कर चिरायु प्राप्त हो जाती है ॥ २६॥ १ स्वदत्तं द्विगुणं पुण्यं पूर्वदत्तानुपालनात् । पूर्वदत्तापहारेण स्वदत्तं निष्फलं भवेत् ।। पित्रा दुहित्रे भगिनी च दत्तं पुत्रे हरत्यात्मन आददानः ॥ पुत्रीरिवास्यां भुवि पूर्वदत्तं गृण्हत आके विफलं स्वदत्तं ॥ सर्वाःप्रजा यथा पूर्वे भूयास्ते वर्तयंति ताः । पालयंतु तथा भूपा वैद्या वा कृषिका इव ॥ दानपालनयोर्मध्ये दानाच्छेयोनुपालनं ।। दानास्वर्गमवाप्नोति पालनादच्युतं पदं ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy