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दानशासनम्
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- कर्म मूढार्जितं सर्व किञ्चिदुद्भवति स्फुटम् ॥ .. अकृष्टानासतृणक्षेत्रेषप्तसुबीजवत् ॥ ४७ ॥ ...'
अर्थ-उपार्जित कर्मों से कोई कर्म उदयमें आकर फल देते हैं, सर्व कर्म फल नहीं देते हैं। बोये गए सब बीजोंसे धान्य उत्पन्न नहीं होता है. कुछ बीज अंकुरित होकर उन थोडेसे थोडी धान्योत्पत्ति होगी ॥ ४७॥ प्रवृद्धपुण्यानि तदात्र केचिद्धरन्ति सार्थानि समाहितानि ॥ प्रवृद्धसस्यानि यथात्र मार्यो हरन्ति सार्थानि समीहितानि॥४८॥ ___ अर्थ-पुण्यसे प्राप्त हुआ धनादिक पापोदयसे नष्ट होता है जैसे उत्पन्न हुआ धान्य धान्यमारी रोगसे नष्ट होता है । अतः प्राप्त हुए भी धनादिक पदार्थोको लोग पापोदयसे भोग नहीं सकते.ऐसा समझकर पुण्य लोग प्राप्तिके ही कार्य हमेशा करना चाहिये ॥ ४८ ॥
__केचित्कुर्वन्ति दानस्य विघ्नं विघ्नार्जनक्षमाः। .... शुक्रपश्चिमकाजेंद्रचापो वृष्टिहरो यथा ॥ ४९ ॥ - अर्थ-किसी किसी का स्वभाव ही यह है कि दान में विघ्न उपस्थित किया जाय, वे अंतराय कर्म का अर्जन करते हैं । जिस प्रकार कि शुक्रग्रह के पश्चिम में रहने वाला इंद्रधनुष नियम से वृष्टि को दूर करता है, उसी प्रकार वह भी दान कार्य नहीं होने देता है ॥ १९ ॥ मुगंधिरंभोष्णजलेन मृत्यु गतेव केचिदुरिते प्रविष्टे ॥ क्षयं प्रयोति क्रमतः सुगंधिरंभामवंतीव वृषं तु जैनाः ॥ ५० ॥
अर्थ-जिस प्रकार गरम पानीसे सुगंधी केले का वृक्ष नष्ट होता है उसी प्रकार पापप्रविष्ट होनेसे यह व्यक्ति नष्ट होता है । जिस प्रकार उस केले के वृक्ष की रक्षा करते हैं उसी प्रकार धर्मकी रक्षा करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए ।। ५० ॥