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________________ भावलक्षणविधानम् अर्थ:-जिस प्रकार कोई बैल जबर्दस्ती गायके सेवन करने के लिए जाते हैं, उसी प्रकार कितने ही पुरुष परस्त्रियोंके प्रति जबर्दस्ती व आसक्तचित्तसे प्रवृत्ति करते हैं ॥ ४३ ॥ क्षेत्रे कूटाकृष्टे वृष्टेऽनन्तादयो यथैधन्ते । बाह्याशुद्धेन तपसा येनान्तरघानि चाशु वर्धन्ते ॥१४॥ अर्थ:-जिस प्रकार उभाड खेत में वर्षाके पडने पर अनेक सस्य विशेष उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार बाह्यमें अशुद्धि होनेपर तपश्चर्या के करनेसे अंतरंग में पाप की वृद्धि होती है ॥ ४४ ॥ कोई कैदीके तुल्य भोगकी इच्छा करता है. इच्छन्ति भोगान् स्मरणेन नित्यं भोगान्तरायेण तपो भवेन्न । ध्यायन्ति केचिन्मनुजा यथास्मिन् काराळये शृंखलिता हि चौराः ॥ ४५ ॥ अर्थ-कोई मनुष्य नित्य ही भोगकी इच्छा करते हैं, स्मरण करते हैं, परंतु भोगांतरायके उदयसे उसकी प्राप्ति नहीं होती है । भोगोंकी प्राप्ति होनेसे वे तप करते हैं ऐसा नहीं समझना चाहिये । जिस प्रकार कारागृहमें पड़ा हुआ चोर अपने छुटकारेका ही ध्यान किया करता है, उसी प्रकार उस व्यक्तिकी हालत है ॥४५॥ दुष्टोंके लिये उपकार अपकारके लिये होता है. हितं पयो विषायैव सर्पाणामिव जायते । केषां चिटुक्रमावानां स्यात्कृतं पुण्यमंहसे ॥ १६ ॥ अर्थ-जिस प्रकार सर्प को पिलाया हुआ हितकर दूध भी विष ही हुआ करता है, उसी प्रकार कोई कोई दुष्टोंको किया हुआ उपकार भी अपकार के लिए हुआ करता है, पुण्य भी पापके रूप में परिणत होता है ॥ ४६॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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