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________________ दानशासनम् पाप में तत्पर होते हैं तथा पाप करने में तत्पर होकर उस से सुख प्राप्ति की इच्छा करते हैं । ऐसे विचारोंसे वे इह पर लोक में हितको नष्ट कर के दुःख को ही भोगते रहते हैं ||२३॥ स्वर्गान्नरं नरात्स्वर्ग क्रमाश्चिततपः पराः । केचिन्मिथ्यादृशो यान्ति मुहुः शाखामृगा यथा ॥२४॥ - अर्थ – कोई २ मिथ्यादृष्टि तपश्चर्याके फलसे स्वर्ग से नरपर्यायको, मनुष्यपर्याय स्वर्गको इस प्रकार क्रमसे वार २ जाते आते रहते हैं, जिस प्रकार कि बंदर वृक्षोंपर एक शाखासे दूसरी शाखापर कूदते रहते हैं ॥ २४ ॥ घनध्वनिश्रुतेरेव निर्विषाः शिखिनो यथा ॥ नटन्ति निरघाः केचिद्धर्मोत्साहध्वनेस्तथा ॥ २५ ॥ अर्थ - मेघकी ध्वनि के सुनते ही जिस प्रकार मयूर निर्विष होते हैं, उसी प्रकार कोई २ पापरहित सज्जन धर्मोत्साह को उत्पन्न करने वाले शब्दको सुनते ही मंदकषायी होते हैं || २५॥ व्याघ्रध्वनिश्रुतेरेव पलायन्ते यथा मृगाः ॥ तथा हिंसाश्रुतेरेव पलायन्तेऽघभीरवः ॥ २६ ॥ अर्थ - जिस प्रकार व्याघ्रके शब्दको सुनते ही मृगगण भाग जाते हैं उसी प्रकार हिंसाविषयको सुनते ही पापभीरु सज्जन भाग जाते हैं ॥ २६ ॥ श्वानचंद्रोदयं दृष्ट्वा भषन्ते वात्यसूयया ॥ केचिद्धन्यजनं दृष्ट्वा प्रद्विषन्त्यत्यसूयया ॥ २७ ॥ अर्थ – चंद्रमा के उदय होते ही ईर्षासे कुत्ते भोकने लगते हैं, उसी प्रकार कोई २ सज्जन व धर्मात्माओंसे ईर्षा द्वेष करते रहते हैं ॥ २७ ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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