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________________ २८४ दानशासनम् अथ शास्त्रदानविधानम्. शास्त्रकी निरुक्ति शास्वनुशिष्टौ धातुः शास्ति हितं भव्यजीवसुखहेतुं । शासनमिव तत्रायत इति शास्त्रमदोषमखिळदोषहरम् ॥ १ ॥ अर्थ - शास धातु अनुशासन अर्थ में प्रयुक्त होता है । अर्थात् वह भव्य जीवोंके लिए सुखके हेतुभूत हितको उपदेश देता है । एवं शासन के समान भव्य प्राणियोंकी रक्षा करता है, अत एव वह शास्त्र समस्त अज्ञानादिक दोषको दूर करनेवाला होने से निर्दोष है ॥ १ ॥ शास्त्रका महत्व शास्त्रादेव हि तत्त्वार्थ श्रद्धानं ज्ञानमांजसम् । ज्ञानपूर्व हि चारित्रं धर्मः शास्त्रादिति स्थितिः ॥ २ ॥ अर्थ - शास्त्रोंके पठन व श्रवण करनेसे ही तत्त्वार्थश्रद्धान अर्थात् सम्यग्दर्शन व निर्मलज्ञानकी प्राप्ति होती है । ज्ञानपूर्वक चारित्र होता है । इसलिए रत्नत्रयात्मक धर्मकी स्थिति शास्त्र से ही होती है ॥२॥ 1 धर्मक्रियावोंकी सिद्धि दानं पूजा तपः शीळं साधुसम्यक्त्व पूर्वकम् । तच्च शास्त्रादतः शास्त्र- मूलधर्मक्रियाखिला ॥ ३ ॥ अर्थ - दान, पूजा, तप व शील ये सब गुण सम्यक्त्वपूर्वक प्राप्त होते हैं । वह सम्यक्त्व शास्त्र के श्रवण व पठन से प्राप्त होता है । इसलिए संपूर्ण धर्मक्रियायें शास्त्रमूलक ही सिद्ध होती हैं ॥ ३ ॥ केवलज्ञानकी सिद्धि एकतः शेषदानानि पूजा शीलं तपोऽखिलं । एकतः शास्त्रदानात्स्यात् केवलज्ञानसाधनम् ॥ ४ ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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