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________________ दानफलविचार २७३ दोषोऽत्रात्ममनोरथागतमिदं द्रव्यं सजीवादिकं । गेहं वा पुरमेव वा स्वविषयं संदापयेच्छावे ॥ २५१ ॥ अर्थ-जिसप्रकार चोर अपने हाथमें आये हुए द्रव्यको अपहरण कर ले जाता है, शत्रु हाथमें आये हुएको मार डालता है, व्याघ्र पशुओंके समूहको मारता है, बाण सेनाजनको मारता है, उसी प्रकार पुण्यकार्य में किये हुए अंतरायका दोष मनुष्यके मनोरथको मारता है अर्थात उसकी इष्टसिद्धि नहीं होने देता, धन अपहरण करता है । सजीव द्विपद चतुष्पदादिजीवोंको मारता है, अपने घर, नगर व देशको शत्रुवोंके हाथमें दिलाता है, इस प्रकार अंतरायका बहुत बुरा फल होता है ॥ २५१ ॥ स्वामिन्नोऽस्ति पुरः किमस्ति विळयः केनापि द्वीपायनास्मृत्युस्ते जलविष्णुना वददिमां श्रुत्वा तदुक्तिं तदा । द्वेषः स्वामिनि चोदपादि वदतो विष्णोर्वचस्तो श्रुते-। भूत्वकः शबरो मुनिः खलु तयोर्निर्जग्मतुस्तत्पुरात् ॥२५२॥ द्वारावती सा मुनिनैव दग्धा कृष्णस्य मृत्युर्जलविष्णुनैव, विघ्नस्य वैचित्र्यमिदं प्रसिद्धं विनाशकाले विपरीतबुद्धिः॥२५३॥ ___ अर्थ-कृष्णचंद्रने जाकर मुनिनाथसे पूछा कि स्वामिन् ! क्या हमारी द्वारावतीका नाश किसीके द्वारा होगा ? मुनिराजने उत्तर दिया कि द्वीपायनके द्वारा द्वारावतीका नाश होगा । मेरा मरण किससे होगा, यह पुनः कृष्णने पूछा। मुनिराजने उत्तर दिया कि जलविष्णुके द्वारा होगा । इस प्रकार मुनिराजके वचनको सुनकर उन मुनिराजोंके प्रति ही क्रुद्ध होते हुए जो वचनको कृष्णचंद्र बोल रहा था, उसे सुनकर द्वीपायन व जलविष्णु उस नगरसे बाहर निकल गये । उनमेंसे एक तो भिल्ल बनकर चला गया और एक मुनिदीक्षा लेकर चला गया। प्रकृतिके वैचित्र्यको देखिये ।
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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