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________________ २६८ दानशासनम् देव व ऋषिसेवाफल जैनं विवामिहोपलेन तरुणा लोहेन चैत्यालयम् ।.. कृत्वा मृत्तिकया च भांडमखिलं कृत्वैव लोकोचितं ॥ पुण्यं लौकिककार्यमाशु लभते सर्वो जमः पामरः । पात्रं स्वामिपदानुरक्तममलं संमार्च्य धन्यो भवेत् ॥२४१॥ अर्थ- इस लोकमें दूसरे लोग जैनबिंबको पत्थरसे, काष्ठसे बनाकर, चैत्यालयको लोहा, मिट्टी, चूना आदिसे बनाकर व इतर सदुचित पात्रोंको बनाकर उसके बदलेमें विपुल धनको पाकर संतुष्ट होते हैं। फिर साक्षात् देव व ऋषियोंकी सेवा करनेवाले विपुल पुण्यको क्यों नहीं प्राप्त करेंगे । अवश्य ही उन देव गुरुओंके चरणोंकी सेवा कर व धन्य होते हैं ॥ २४१ ॥ देव व गुरु आदिके प्रति दुर्वचननिषेध योऽपथ्यः सरुजी यथा समनुजो दुर्वासमंतुर्यथा।। दुष्कर्माणि कृतानि येन स पुरा दुःखं लभेताद्भुतं । दुष्टाष्टादशदोषवृत्तिरहिते जीवेऽपि देवे गुरौ। निर्दोषास्युरिवार सव्रतयुतास्तिष्ठति संतस्सदा ॥२४२॥ अर्थ-रोगीने यदि अपथ्य किया तो उसका रोग बढता है, उसको भयंकर दुःख भोगना पडता है। यदि अपराधीने राजसेवकोंके साथ दुर्वचनका प्रयोग किया तो उससे उसको भयंकर दुःख अनुभव करना पडता है। पूर्वजन्ममें जिसने दुष्कर्मीका आचरण किया उसको यहांपर दुःख भोगना पडता है । दुष्ट रागादि अठारह दोष जिनके हृदयमें नहीं है, ऐसे जीवोंके प्रति-देव व गुरु निर्दोष हैं उनके प्रति दुष्ट वचनोंका प्रयोग कभी नहीं करना चाहिये ॥ २४२ ॥ अन्योंसे द्वेष करनेका निषेध . येऽन्यद्विषः सुतपीता जीवंति स्वपरिग्रहे । ... तेषां न भातिर्नमनः स्वास्थ्यं रोगादिभिवृथा ॥२४३॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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