SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६० दानशासनम् उसी प्रकारकी है जिस प्रकार कि एक मनुष्य बोए हुए नारियलको निकालकर खाता है । उसी प्रकारका वह मूढ धार्मिक है ॥ २१३ ॥ अन्यद्रव्य ग्रहणनिषेध योऽशेषवस्तुप्रकरोपकर्ता तद्वस्तुलेशांशकयाचिता चेत् । शप्यत्यलाभे यदि कुप्यति प्रियं स एव मूर्खो न कृतिर्न धर्मवान् ॥ अर्थ - जो सज्जन अपने धनसे दूसरोंको उपकार करता है, यदि उसने उस द्रव्यके कुछ अंशको अपने लिए याचन किया तो उसने दिया तो ठीक है, नहीं दिया तो उसके ऊपर क्रोधित होता है, गाली देता है, वही मूर्ख है, वह सज्जन नहीं, धार्मिक नहीं । क्यों कि दूसरोंको दिए हुए द्रव्यपर उसका कुछ भी अधिकार नहीं है, इस बातका वह विचार नहीं करता है ।। २१४ ॥ गर्ताटोऽन्यचितं कुमूलनिहितं धान्यं यथास्यन्वहम् । दारिद्र्योद्भवदुःखभाजन जनोऽन्यार्थ तथा सेवते । यद्दीनारशतांश तस्करजनो दत्ते नृपायाखिलम् । तस्मादन्यधनं च साधिपतृणं धन्यो जनो न स्पृशेत् ॥ २१५ ॥ अर्थ – जिसप्रकार गर्ताट ( चूहे के समान जमीन के अंदर रहनेवाला जंतु ) कुसूल भरे हुए धान्यको सदा खाती है, उसी प्रकार दारिद्रयके दुःख से पीडित मनुष्य अनेक उपायोंसे परद्रव्यको अपहरण करते हैं । उसका फल बहुत बुरा भोगना पडता है । जिसप्रकार एक चोरने एक शतांश द्रव्यकी चोरी की तो भी राजाके द्वारा दिया हुआ दंड तो उस से शतगुणा अधिक होता है, और उसे देना ही पडता है । इसलिए परधनको धन्य सज्जन कभी भी स्पर्श न करें, इतना ही क्यों ? जिस घासका मालिक हो उस घासको भी नहीं लेवें ॥ २१५ ॥ देवाय गुरवे राज्ञे दत्तं पात्राय यद्धनं । दातृभिस्तच्च न ग्राह्यं स्वक्षेत्रेषूतबीजवत् ॥ २१६ ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy