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________________ २५० दानशासनम् दानं मिथ्यादृशे दत्तं दृष्टिं पुण्यं च नाशयेत् । साधितेऽरिपुरे शत्रुः कंटकद्रून्वपत्रिव ।। १८८॥ अर्थ-मिथ्यादृष्टि के लिए दान देनेपर वह सम्यक्त्व व पुण्यका नाश करता है । शत्रुके नगरको साधन करने के बाद शत्रुराजा जिस प्रकार कंटकवृक्षोके बीजको बोता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टियोंको दान देनेपर अपनी हानिके लिए ही कारण होगा ॥ १८८ ॥ मुक्त्वा निजस्वामिनमेव वित्ताः । शत्रु समाश्रित्य सभाति रास्ति (?) ॥ सायुर्विभूतिः स यथा विनश्येत् । सुदृक्तथा स्यात्कगाश्रितश्च ॥ १८९ ॥ अर्थ--जो व्यक्ति अपने स्वामीको छोडकर शत्रुका आश्रय करता है वह अपनी हानि ही कर लेता है । और उसकी संपत्ति आदिक नष्ट होती है, इसी प्रकार जो सम्यग्दृष्टी जीव मिथ्यादृष्टियोंका आश्रय करता है उसकी हालत होती है ॥ १८९ ॥ ब्रह्मवते दर्शन एव नष्टेऽवग्राहतः स्यादिव लोक एषः । ज्ञाने तटाकादिविभेदवत्सद्वृत्तेपि सस्यादिविनाशवच्च॥१९०॥ अर्थ-इस जीवका ब्रह्मचर्यत्रत व सम्यग्दर्शन यदि भ्रष्ट हुआ तो लोकमें बरसात न पडनेसे जो दुर्भिक्ष फैलता है उसके समान उस की हालत होती है । ज्ञानके नष्ट होनेपर तालाब आदिके बांधके टूटने के समान होता है । अइिंसादि व्रतों के नष्ट होनेपर खेतके सस्यादिकके नाशके समान होता है ॥ १९० ॥ . एषामासां न दानेच्छत्युक्त्वा यस्तानिवारयेत् । स एव सैव पापात्मा स्यानिस्त्री जन्मजन्मनि ॥ १९१ ॥ अर्थ-जो व्यक्ति " अमुक पुरुषकी दान देने की इच्छा नहीं है,
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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