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________________ दानफलविचार . २४९ अर्थ-जो व्यक्ति दरिद्रताके कारण पात्रदानादिक न करसकनेसे सदा खेदखिन्न होता रहता है, यदि उसे किसी तरह धन मिलकर श्रीमंत हुआ तो फिर वह देव, धर्म आदिको भूल जाता है । उस समय वह पापकार्यमें, मिथ्यादृष्टियोंके लिए, वेश्या, विदूषक, गायक, भांड आदिके लिए अपने द्रव्य का व्यय करता है । एवं देह व इंद्रियभोगमें व्यय करता है । खराब स्थानोंमें, अपना घर वगैरे बनाने में व्यय करता है। उसकी क्रियायें मूलधनके ही नाशके लिए होती हैं । उसे चाहे तो और भी लोग कर्ज वगैरे देते हैं । परंतु धर्मके लिए धनादिककी सहायता नहीं मिलती है, अर्थात् लोकमें पापकार्योंके लिए धन आदिकी कभी कमी नहीं होती है । परंतु धर्मकार्य, पात्रदान आदि करना हो तो उसके लिए धन आदिककी बडी अडचन रहती है ॥ १८६ ॥ ... मिथ्यादृष्टिदत्तदानफल. भुक्त्यादौ बहुपीतमंबु दहनं निर्नाशयत्युज्ज्वलम् । पश्चाद्धक्तमहाशनं गरलवत्पाणान्यथा हंति यत् ॥ सद्वृष्टिः कुदृशेषु पात्रमिति तं मत्वा च दत्ते धनं । हत्वा दृषसुकृतं पुनः कृतमघं संवयं तत्स्वं क्षयेत् ॥१८७॥ - अर्थ-जिस प्रकार तीव्र भूख लगे हुए व्यक्तिने यदि भोजनके पहिले यदि खूब पानी पीलिया तो तीक्ष्ण उदराग्नि एकदम नष्ट होती है, और उसके बाद पुनः अधिक भोजन किया तो उसे पचाने योग्य अग्निके न होने के कारण वह भोजन भी विषके समान होता है । इसी प्रकार जो मनुष्य मिथ्यादृष्टिको भी पात्र समझकर दान देता है, वह सम्यग्दृष्टि अपने सम्यग्दर्शन व पुण्यको खो लेता है, और पापकी वृद्धि करता है । एवं अपने वंश इत्यादिकके विभवको नष्ट करता ३२
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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