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________________ २२२ दानशासनम् - - - - अर्थ-सात्विक, राजस व तामस जो उत्तम, मध्यम व जघन्य दानके भेदसं कहे गये हैं, उन तीनोंमें द्रव्यव्ययकी तो समानता है, अर्थात् द्रव्यव्यय तीनोंमें होता है । परंतु तीन प्रकारके परिणामों के भेदसे उसके तीन भेद होते हैं ॥ ११९ ॥ . असीमव्यवहारका फल. देशयोगपृषादीनां वर्तन्ते येऽवधिं विना ॥ त एव नाशं गच्छति सगरस्य सुता इव ।। १२० ॥ . अर्थ-देश, मन वचन, काय योग, धर्म, स्वस्त्री, बंधुमित्र आदि के साथ जो नीति की मर्यादाको उल्लंघन कर व्यवहार करते हैं वे सगर चक्रवर्ति के पुत्रों के समान नष्ट होते हैं। अर्थात् उनको अनेक प्रकार से हानि उठानी पडती है ॥ १२० ॥ ___ गर्बसे हानि. - मनुते तृणवल्लोकं सगर्वो निस्पृहो यथा ॥ स्वयं मुंचति भाग्यं च सगरस्य सुता इव ॥ १२१॥ __ अर्थ--अहंकारी मनुष्य निस्पृह मनुष्य के समान लोकको तृणवत् समझता है, उसकी करतूतोंसे वह स्वयं अपने भाग्यको खो देता है। जिस प्रकार सगर चक्रवर्तिके पुत्रोंकी हालत हुई ।। १२१ ॥ यत्रास्ते निस्पृहोऽसौ तृणमिव भुवनं बोधने यस्स गर्छ । धर्म देवं गुरुं च स्वजनपुरजनान्भूपमंहो न पुण्यम् ॥ कुप्या शप्यः स सद्यः फलति परिभवं सर्वमुर्वीश्वरायेस्त्यक्त्वा गर्व च तस्माद्भज भज मनुजत्वं धर्ममार्ग स्वभावात्॥ अर्थ-जिस जिसप्रकार कषायेंद्रियादिको वर्धन करनेवाले लोकको एक निस्पृहव्यक्ति तृणके समान समझता है उसी प्रकार गर्षीपुरुष
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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